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मैंने ताज्जुब से पूछा-पुलिस के आदमी होकर वह तुम्हें यहाँ आने की आजादी देते हैं?

जालपा इस प्रश्न के लिए तैयार न मालूम होती थी। कुछ चौंककर बोली-वह मुझसे कुछ नहीं कहते। मैंने उनसे यहाँ आने की बात नहीं कही। वह घर बहुत कम आते हैं। वहीं पुलिस वालों के साथ रहते हैं।

उन्होंने एक साथ तीन जवाब दिए। फिर भी उन्हें शक हो रहा था कि इनमें से कोई जवाब इत्मीनान के लायक नहीं है। वह कुछ खिसियानी-सी होकर दूसरी तरफ ताकने लगी।

मैंने पूछा-तुम अपने स्वामी से कहकर किसी तरह मेरी मुलाकात उस मुखबिर से करा सकती हो, जिसने इन कैदियों के खिलाफ गवाही दी है? रमानाथ की आँखें फैल गई और छाती धक-धक् करने लगी।

जोहरा बोली—यह सुनकर जालपा ने मुझे चुभती हुई आँखों से देखकर पूछा, तुम उनसे मिलकर क्या करोगी?

मैंने कहा-तुम मुलाकात करा सकती हो या नहीं, मैं उनसे यही पूछना चाहती हूँ कि तुमने इतने आदमियों को फँसाकर क्या पाया? देखेंगी वह क्या जवाब देते हैं?

जालपा का चेहरा सख्त पड़ गया। बोली-वह यह कह सकता है, मैंने अपने फायदे के लिए किया! सभी आदमी अपना फायदा सोचते हैं। मैंने भी सोचा। जब पुलिस के सैकड़ों आदमियों से कोई यह प्रश्न नहीं करता, तो उससे यह प्रश्न क्यों किया जाए? इससे कोई फायदा नहीं।

मैंने कहा—अच्छा, मान लो तुम्हारा पति ऐसी मुखबिरी करता, तो तुम क्या करती?

जालपा ने मेरी तरफ सहमी हुई आँखों से देखकर कहा तुम मुझसे यह सवाल क्यों करती हो, तुम खुद अपने दिल में इसका जवाब क्यों नहीं ढूँढ़ती?

मैंने कहा, मैं तो उनसे कभी न बोलती, न कभी उनकी सूरत देखती।

जालपा ने गंभीर चिंता के भाव से कहा-शायद मैं भी ऐसा ही समझती, या न समझती, कुछ कह नहीं सकती। आखिर पुलिस के अफसरों के घर में भी तो औरतें हैं, वे क्यों नहीं अपने आदमियों को कुछ कहतीं, जिस तरह उनके हृदय अपने मरदों के से हो गए हैं, संभव है, मेरा हृदय भी वैसा ही हो जाता।

इतने में अँधेरा हो गया। जालपा देवी ने कहा—मुझे देर हो रही है। बच्चे साथ हैं। कल हो सके तो फिर मिलिएगा। आपकी बातों में बड़ा आनंद आता है।

मैं चलने लगी, तो उन्होंने चलते-चलते मुझसे कहा, जरूर आइएगा। वहीं मैं मिलूँगी। आपका इंतजार करती रहूँगी, लेकिन दस ही कदम के बाद फिर रुककर बोलीं-मैंने आपका नाम तो पूछा ही नहीं। अभी तुमसे बातें करने से जी नहीं भरा। देर न हो रही हो तो आओ, कुछ देर गप-शप करें।

मैं तो यह चाहती ही थी। अपना नाम जोहरा बतला दिया। रमा ने पूछा-सच!

जोहरा–हाँ, हरज क्या था। पहले तो जालपा भी जरा चौंकी, पर कोई बात न थी। समझ गई, बंगाली मुसलमान होगी। हम दोनों उसके घर गई। उस जरा से कठघरे में न जाने वह कैसे बैठती है। एक तिल भी जगह नहीं। कहीं