पृष्ठ:गबन.pdf/२२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

मटके हैं, कहीं पानी, कहीं खाट, कहीं बिछावन, सील और बदबू से नाक फटी जाती थी। खाना तैयार हो गया था। दिनेश की बहू बरतन धो रही थी। जालपा ने उसे उठा दिया, जाकर बच्चों को खिलाकर सुला दो, मैं बरतन धोए देती हूँ और खुद बरतन माँजने लगी। उनकी यह खिदमत देखकर मेरे दिल पर इतना असर हुआ कि मैं भी वहीं बैठ गई और माँजे हुए बरतनों को धोने लगी। जालपा ने मुझे वहाँ से हट जाने के लिए कहा, पर मैं न हटी, बराबर बरतन धोती रही। जालपा ने तब पानी का मटका अलग हटाकर कहा-मैं पानी न दूंगी, तुम उठ जाओ, मुझे बड़ी शर्म आती है, तुम्हें मेरी कसम, हट जाओ, यहाँ आना तो तुम्हारी सजा हो गई, तुमने ऐसा काम अपनी जिंदगी में क्यों किया होगा! मैंने कहा तुमने भी तो कभी नहीं किया होगा, जब तुम करती हो, तो मेरे लिए क्या हरज है!

जालपा ने कहा-मेरी और बात है।

मैंने पूछा-क्यों? जो बात तुम्हारे लिए है, वही मेरे लिए भी है। कोई महरी क्यों नहीं रख लेती हो?

जालपा ने कहा—महरियाँ आठ-आठ रुपए माँगती हैं।

मैं बोली–मैं आठ रुपए महीना दे दिया करूँगी।

जालपा ने ऐसी निगाहों से मेरी तरफ देखा, जिसमें सच्चे प्रेम के साथ सच्चा उल्लास, सच्चा आशीर्वाद भरा हुआ था। वह चितवन! आह! कितनी पाकीजा थी, कितनी पाक करनेवाली। उनकी इस बेगरज खिदमत के सामने मुझे अपनी जिंदगी कितनी जलील, कितनी काबिले नकरत मालूम हो रही थी। उन बरतनों के धोने में मुझे जो आनंद मिला, उसे मैं बयान नहीं कर सकती।

बरतन धोकर उठीं, तो बुढिया के पाँव दबाने बैठ गईं। मैं चुपचाप खड़ी थी। मुझसे बोलीं-तुम्हें देर हो रही हो तो जाओ, कल फिर आना।

मैंने कहा-नहीं, मैं तुम्हें तुम्हारे घर पहुँचाकर उधर ही से निकल जाऊँगी। गरज नौ बजे के बाद वह वहाँ से चलीं। रास्ते में मैंने कहा-जालपा, तुम सचमुच देवी हो।

जालपा ने छूटते ही कहा—जोहरा, ऐसा मत कहो मैं खिदमत नहीं कर रही हूँ, अपने पापों का प्रायश्चित्त कर रही हूँ। मैं बहुत दुःखी हूँ। मुझसे बड़ी अभागिनी संसार में न होगी।

मैंने अनजान बनकर कहा—इसका मतलब मैं नहीं समझी।

जालपा ने सामने ताकते हुए कहा—कभी समझ जाओगी। मेरा प्रायश्चित्त इस जनम में न पूरा होगा। इसके लिए मुझे कई जनम लेने पड़ेंगे।

मैंने कहा-तुम तो मुझे चक्कर में डाले देती हो, बहन! मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। जब तक तुम इसे समझा न दोगी, मैं तुम्हारा गला न छोडूंगी। जालपा ने एक लंबी साँस लेकर कहा-जोहरा, किसी बात को खुद छिपाए रखना इससे ज्यादा आसान है कि दूसरों पर वह बोझ रखू। मैंने आहत कंठ से कहा हाँ, पहली मुलाकात में अगर आपको मुझ पर इतना एतबार न हो, तो मैं आपको इलजाम न दूँगी, मगर कभी-न-कभी आपको मुझ पर एतबार करना पड़ेगा। मैं आपको छोडूंगी नहीं।