पृष्ठ:गबन.pdf/२२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

कर चुकी हैं। मैंने भी पाँच रुपए दिए। मैंने दो-एक बार जिक्र किया कि आप इन झगड़ों में न पडिए, अपने घर चली जाइए, लेकिन मैं साफ-साफ कहती हूँ, मैंने कभी जोर देकर यह बात न कही। जब-जब मैंने इसका इशारा किया, उन्होंने ऐसा मुँह बनाया, गोया वह यह बात सुनना भी नहीं चाहतीं। मेरे मुँह से पूरी बात कभी न निकलने पाई। एक बात है, कहो तो कहूँ?

रमा ने मानो ऊपरी मन से कहा-क्या बात है?

जोहरा–डिप्टी साहब से कह दूँ, वह जालपा को इलाहाबाद पहुँचा दें। उन्हें कोई तकलीफ न होगी। बस दो औरतें उन्हें स्टेशन तक बातों में लगा ले जाएँगी। वहाँ गाड़ी तैयार मिलेगी, वह उसमें बैठा दी जाएँगी, या कोई और तदबीर सोचो।

रमा ने जोहरा की आँखों से आँख मिलाकर कहा—क्या यह मुनासिब होगा?

जोहरा ने शरमाकर कहा—मुनासिब तो न होगा।

रमा ने चटपट जूते पहन लिए और जोहरा से पूछा-देवीदीन के ही घर पर रहती है न?

जोहरा उठ खड़ी हुई और उसके सामने आकर बोली तो क्या इस वक्त जाओगे?

रमानाथ–हाँ जोहरा, इसी वक्त चला जाऊँगा। बस, उनसे दो बातें करके उस तरफ चला जाऊँगा, जहाँ मुझे अब से बहुत पहले चला जाना चाहिए था।

जोहरा–मगर कुछ सोच तो लो, नतीजा क्या होगा?

रमानाथ—सब सोच चुका, ज्यादा-से ज्यादा तीन-चार साल की कैद दरोगबयानी के जुर्म में। बस अब रुखसत, भूल मत जाना जोहरा, शायद फिर कभी मुलाकात हो!

रमा बरामदे से उतरकर सहन में आया और एक क्षण में फाटक के बाहर था। दरबान ने कहा हुजूर ने दारोगाजी को इत्तला कर दी है?

रमानाथ—इसकी कोई जरूरत नहीं।

चौकीदार-मैं जरा उनसे पूछ लूँ। मेरी रोजी क्यों ले रहे हैं, हुजूर?

रमा ने कोई जवाब न दिया। तेजी से सड़क पर चल खड़ा हुआ। जोहरा निस्पंद खड़ी उसे हसरत भरी आँखों से देख रही थी। रमा के प्रति ऐसा प्यार, ऐसा विकल करनेवाला प्यार उसे कभी न हुआ था। जैसे कोई वीरबाला अपने प्रियतम को समरभूमि की ओर जाते देखकर गर्व से फूली न समाती हो। चौकीदार ने लपककर दारोगा से कहा। वह बेचारे खाना खाकर लेटे ही थे। घबराकर निकले, रमा के पीछे दौड़े और पुकारा- बाबू साहब, जरा सुनिए तो, एक मिनट रुक जाइए, इससे क्या फायदा, कुछ मालूम तो हो, आप कहाँ जा रहे हैं? आखिर बेचारे एक बार ठोकर खाकर गिर पड़े। रमा ने लौटकर उन्हें उठाया और पूछा- कहीं चोट तो नहीं आई?

दारोगा-कोई बात न थी, जरा ठोकर खा गया था। आखिर आप इस वक्त कहाँ जा रहे हैं? सोचिए तो इसका