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नतीजा क्या होगा?

रमानाथ-मैं एक घंटे में लौट आऊँगा। जालपा को शायद मुखालिफों ने बहकाया है कि तू हाईकोर्ट में एक अर्जी दे दे। जरा उसे जाकर समझाऊँगा।

दारोगा—यह आपको कैसे मालूम हुआ?

रमानाथ–जोहरा कहीं सुन आई है।

दारोगा-बड़ी बेवफा औरत है। ऐसी औरत का तो सिर काट लेना चाहिए।

रमानाथ—इसीलिए तो जा रहा हूँ या तो इसी वक्त उसे स्टेशन पर भेजकर आऊँगा या इस बुरी तरह पेश आऊँगा कि वह भी याद करेगी। ज्यादा बातचीत का मौका नहीं है। रात भर के लिए मुझे इस कैद से आजाद कर दीजिए।

दारोगा-मैं भी चलता हूँ, जरा ठहर जाइए।

रमानाथ—जी नहीं, बिल्कुल मामला बिगड़ जाएगा। मैं अभी आता हूँ।

दारोगा लाजवाब हो गए। एक मिनट तक खड़े सोचते रहे, फिर लौट पड़े और जोहरा से बातें करते हुए पुलिस स्टेशन की तरफ चले गए। उधर, रमा ने आगे बढ़कर एक ताँगा किया और देवीदीन के घर जा पहुँचा। जालपा दिनेश के घर से लौटी थी और बैठी जग्गो और देवीदीन से बातें कर रही थी। वह इन दिनों एक ही वक्त खाना खाया करती थी। इतने में रमा ने नीचे से आवाज दी। देवीदीन उसकी आवाज पहचान गया। बोला—भैया हैं सायत।

जालपा–कह दो, यहाँ क्या करने आए हैं? वहीं जाएँ।

देवीदीन-नहीं बेटी, जरा पूछ तो लूँ, क्या कहते हैं। इस बखत कैसे उन्हें छुट्टी मिली?

जालपा–मुझे समझाने आए होंगे और क्या! मगर मुँह धो रखें। देवीदीन ने द्वार खोल दिया। रमा ने अंदर आकर कहा-दादा, तुम मुझे यहाँ देखकर इस वक्त ताज्जुब कर रहे होगे। एक घंटे की छुट्टी लेकर आया हूँ। तुम लोगों से अपने बहुत से अपराधों को क्षमा कराना था। जालपा ऊपर

देवीदीन बोला–हाँ, हैं तो। अभी आई हैं, बैठो, कुछ खाने को लाऊँ!

रमानाथ-नहीं, मैं खाना खा चुका हूँ। बस, जालपा से दो बातें करना चाहता हूँ।

देवीदीन-वह मानेगी नहीं, नाहक शर्मिंदा होना पड़ेगा। मानने वाली औरत नहीं है।

रमानाथ–मुझसे दो-दो बातें करेंगी या मेरी सूरत ही नहीं देखना चाहती? जरा जाकर पूछ लो।

देवीदीन—इसमें पूछना क्या है, दोनों बैठी तो हैं, जाओ। तुम्हारा घर जैसे तब था, वैसे अब भी है।

रमानाथ–नहीं दादा, उनसे पूछ लो। मैं यों न जाऊँगा।