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पीछे की शक्ति में कर्तव्य था, स्नेह था, बंधन था। बंधन ने रोक लिया। वह लौट पड़ा। कई मिनट तक जालपा और रमा घुटनों तक पानी में खड़े उसी तरफ ताकते रहे। रमा की जबान आत्म-धिक्कार ने बंद कर रखी थी, जालपा की शोक और लज्जा ने। आखिर रमा ने कहा-पानी में क्यों खड़ी हो? सर्दी हो जाएगी।

जालपा पानी से निकलकर तट पर खड़ी हो गई, पर मुँह से कुछ न बोली, मृत्यु के इस आघात ने उसे पराभूत कर दिया था। जीवन कितना अस्थिर है, यह घटना आज दूसरी बार उसकी आँखों के सामने चरितार्थ हुई। रतन के मरने की पहले से आशंका थी। मालूम था कि वह थोड़े दिनों की मेहमान है, मगर जोहरा की मौत तो वज्राघात के समान थी। अभी आधा घड़ी पहले तीनों आदमी प्रसन्नचित्त, जल-क्रीड़ा देखने चले थे। किसे शंका थी कि मृत्यु की ऐसी भीषण पीड़ा उनको देखनी पड़ेगी।

इन चार सालों में जोहरा ने अपनी सेवा, आत्म त्याग और सरल स्वभाव से सभी को मुग्ध कर लिया था। अपने अतीत को मिटाने के लिए, अपने पिछले दागों को धो डालने के लिए, उसके पास इसके सिवा और क्या साधन था। उसकी सारी कामनाएँ, सारी वासनाएँ सेवा में लीन हो गईं। कलकत्ता में वह विलास और मनोरंजन की वस्तु थी। शायद कोई भला आदमी उसे अपने घर में न घुसने देता। यहाँ सभी उसके साथ घर के प्राणी का सा व्यवहार करते थे। दयानाथ और रामेश्वरी को यह कहकर शांत कर दिया गया था कि वह देवीदीन की विधवा बहू है। जोहरा ने कलकत्ता में जालपा से केवल उसके साथ रहने की भिक्षा माँगी थी। अपने जीवन से उसे घृणा हो गई थी। जालपा की विश्वासमय उदारता ने उसे आत्मशुद्धि के पथ पर डाल दिया। रतन का पवित्र, निष्काम जीवन उसे प्रोत्साहित किया करता था। थोड़ी देर के बाद रमा भी पानी से निकला और शोक में डूबा हुआ घर की ओर चला, मगर अकसर वह और जालपा नदी के किनारे आ बैठते और जहाँ जोहरा डूबी थी, उस तरफ घंटों देखा करते। कई दिनों तक उन्हें यह आशा बनी रही कि शायद जोहरा बच गई हो और किसी तरफ से चली आए, लेकिन धीरे-धीरे यह क्षीण आशा भी शोक के अंधकार में खो गई, मगर अभी तक जोहरा की सूरत उनकी आँखों के सामने फिरा करती है। उसके लगाए हुए पौधे, उसकी पाली हुई बिल्ली, उसके हाथों के सिले हुए कपड़े, उसका कमरा, यह सब उसकी स्मृति के चिह्न हैं और उनके पास जाकर रमा की आँखों के सामने जोहरा की तसवीर खड़ी हो जाती है।