पृष्ठ:गबन.pdf/२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

7

सवेरा होते ही दयानाथ गहने लेकर सर्राफ के पास पहुँचे और हिसाब होने लगा। सर्राफ के पंद्रह सौ रुपए आते थे, मगर वह केवल पंद्रह सौ रुपए के गहने लेकर संतुष्ट न हुआ। बिके हुए गहनों को वह बट्टे पर ही ले सकता था। बिकी हुई चीज कौन वापस लेता है। रोकड़ पर दिए होते तो दूसरी बात थी। इन चीजों का तो सौदा हो चुका था। उसने कुछ ऐसी व्यापारिक सिद्धांत की बातें कीं, दयानाथ को कुछ ऐसा शिकंजे में कसा कि बेचारे को हाँ-हाँ करने के सिवा और कुछ न सूझा। दफ्तर का बाबू चतुर दुकानदार से क्या पेश पाता? पंद्रह सौ रुपए में पच्चीस सौ रुपए के गहने भी चले गए, ऊपर से पचास रुपए और बाकी रह गए। इस बात पर पिता-पुत्र में कई दिन खूब वादविवाद हुआ। दोनों एक-दूसरे को दोषी ठहराते रहे। कई दिन आपस में बोलचाल बंद रही, मगर इस चोरी का हाल गुप्त रखा गया। पुलिस को खबर हो जाती तो भंडा फट जाने का भय था। जालपा से यही कहा गया कि माल तो मिलेगा नहीं, व्यर्थ का झंझट भले ही होगा। जालपा ने भी सोचा, जब माल ही न मिलेगा तो रपट व्यर्थ क्यों की जाए।

जालपा को गहनों से जितना प्रेम था, उतना कदाचित् संसार की और किसी वस्तु से न था और उसमें आश्चर्य की कौन सी बात थी। जब वह तीन वर्ष की अबोध बालिका थी, उस वक्त उसके लिए सोने के चूड़े बनवाए गए थे। दादी जब उसे गोद में खिलाने लगती तो गहनों की ही चर्चा करती-तेरा दूल्हा तेरे लिए बड़े सुंदर गहने लाएगा। ठुमक-ठुमककर चलेगी। जालपा पूछती–चाँदी के होंगे कि सोने के, दादीजी?

दादी कहती–सोने के होंगे बेटी, चाँदी के क्यों लाएगा–चाँदी के लाए तो तुम उठाकर उसके मुँह पर पटक देना।

मानकी छेड़कर कहती–चाँदी के तो लाएगा ही। सोने के उसे कहाँ मिले जाते हैं!

जालपा रोने लगती। बूढ़ी दादी, मानकी, घर की महरियाँ, पड़ोसिनें और दीनदयाल सब हँसते। उन लोगों के लिए यह विनोद का अशेष भंडार था। बालिका जब जरा और बड़ी हुई तो गुड़ियों के ब्याह करने लगी। लड़के की ओर से चढ़ावे जाते, दुलहिन को गहने पहनाती, डोली में बैठाकर विदा करती, कभी-कभी दुलहिन गुडिया अपने नए दूल्हे से गहनों के लिए मान करती, गुड्डा बेचारा कहीं-न-कहीं से गहने लाकर स्त्री को प्रसन्न करता था। उन्हीं दिनों बिसाती ने उसे वह चंद्रहार दिया, जो अब तक उसके पास सुरक्षित था। जरा और बड़ी हुई तो बड़ी-बूढियों में बैठकर गहनों की बातें सुनने लगी। महिलाओं के उस छोटे-से संसार में इसके सिवा और कोई चर्चा ही न थी। किसने कौन-कौन गहने बनवाए, कितने दाम लगे, ठोस हैं या पोले, जड़ाऊ हैं या सादे, किस लड़की के विवाह में कितने गहने आए इन्हीं महत्त्वपूर्ण विषयों पर नित्य आलोचना-प्रत्यालोचना, टीका-टिप्पणी होती रहती थी। कोई दूसरा विषय इतना रोचक और इतना ग्राह्य हो ही नहीं सकता था। इस आभूषण-मंडित संसार में पली हुई जालपा का यह आभूषण-प्रेम स्वाभाविक ही था।

महीने भर से ऊपर हो गया। उसकी दशा ज्यों-की-त्यों है। न कुछ खाती-पीती है, न किसी से हँसती-बोलती है। खाट पर पड़ी हुई शून्य नजरों से शून्याकाश की ओर ताकती रहती है। सारा घर समझाकर हार गया, पड़ोसिने समझाकर हार गई, दीनदयाल आकर समझा गए, पर जालपा ने रोग-शय्या न छोड़ी। उसे अब घर में किसी पर विश्वास नहीं है, यहाँ तक कि रमा से भी उदासीन रहती है। वह समझती है, सारा घर मेरी उपेक्षा कर रहा है। सबके