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सब मेरे प्राण के ग्राहक हो रहे हैं। जब इनके पास इतना धन है तो फिर मेरे गहने क्यों नहीं बनवाते? जिससे हम सबसे अधिक स्नेह रखते हैं, उसी पर सबसे अधिक रोष भी करते हैं। जालपा को सबसे अधिक क्रोध रमानाथ पर था। अगर यह अपने माता-पिता से जोर देकर कहते तो कोई इनकी बात न टाल सकता, पर यह कुछ कहें भी? इनके मुँह में तो दही जमा हुआ है। मुझसे प्रेम होता तो यों निशचिंत न बैठे रहते। जब तक सारी चीजें न बनवा लेते, रात को नींद न आती। मुँह देखे की मुहब्बत है। माँ-बाप से कैसे कहें, जाएँगे, तो अपनी ही ओर, मैं कौन हूँ! वह रमा से केवल खिंची ही न रहती थी, वह कभी कुछ पूछता तो दो-चार जली-कटी सुना देती। बेचारा अपना सा मुँह लेकर रह जाता! गरीब अपनी ही लगाई हुई आग में जला जाता था। अगर वह जानता कि उन डींगों का यह फल होगा तो वह जबान पर मुहर लगा लेता। चिंता और ग्लानि उसके हृदय को कुचले डालती थी। कहाँ सुबह से शाम तक हँसी-कहकहे, सैर-सपाटे में कटते थे, कहाँ अब नौकरी की तलाश में ठोकरें खाता फिरता था। सारी मस्ती गायब हो गई। बार-बार अपने पिता पर क्रोध आता—यह चाहते तो दो-चार महीने में सब रुपए अदा हो जाते, मगर इन्हें क्या फिक्र! मैं चाहे मर जाऊँ, पर यह अपनी टेक न छोड़ेंगे। उसके प्रेम से भरे हुए निष्कपट हृदय में आग-सी सुलगती रहती थी। जालपा का मुरझाया हुआ मुख देखकर उसके मुँह से ठंडी साँस निकल जाती थी। वह सुखद प्रेम-स्वप्न इतनी जल्द भंग हो गया, क्या वे दिन फिर कभी आएँगे–तीन हजार के गहने कैसे बनेंगे? अगर नौकर भी हुआ तो ऐसा कौन सा बड़ा ओहदा मिल जाएगा तीन हजार तो शायद तीन जनम में भी न जमा हों। वह कोई ऐसा उपाय सोच निकालना चाहता था, जिसमें वह जल्द-से-जल्द अतुल संपत्ति का स्वामी हो जाए। कहीं उसके नाम कोई लॉटरी निकल आती! फिर तो वह जालपा को आभूषणों से मढ़ देता। सबसे पहले चंद्रहार बनवाता, उसमें हीरे जड़े होते। अगर इस वक्त उसे जाली नोट बनाना आ जाता तो अवश्य बनाकर चला देता।

एक दिन वह शाम तक नौकरी की तलाश में मारा-मारा फिरता रहा।

शतरंज की बदौलत उसका कितने ही अच्छे-अच्छे आदमियों से परिचय था, लेकिन वह संकोच और डर के कारण किसी से अपनी स्थिति प्रकट न कर सकता था। यह भी जानता था कि यह मान-सम्मान उसी वक्त तक है, जब तक किसी के सामने मदद के लिए हाथ नहीं फैलाता। यह आन टूटी, फिर कोई बात भी न पूछेगा। कोई ऐसा भलामानुस न दीखता था, जो कुछ बिना कहे ही जान जाए और उसे कोई अच्छी सी जगह दिला दे। आज उसका चित्त बहुत खिन्न था। मित्रों पर ऐसा क्रोध आ रहा था कि एक-एक को फटकारे और कोई आए तो वार से दुत्कार दे। अब किसी ने शतरंज खेलने को बुलाया, तो ऐसी फटकार सुनाऊँगा कि बच्चा याद करे, मगर वह जरा गौर करता तो उसे मालूम हो जाता कि इस विषय में मित्रों का उतना दोष न था, जितना खुद उसका। कोई ऐसा मित्र न था, जिससे उसने बढ़-बढ़कर बातें न की हों। यह उसकी आदत थी। घर की असली दशा को वह सदैव बदनामी की तरह छिपाता रहा और यह उसी का फल था कि इतने मित्रों के होते हुए भी वह बेकार था। वह किसी से अपनी मनोव्यथा न कह सकता था और मनोव्यथा साँस की भाँति अंदर घुटकर असह्य हो जाती है। घर में आकर मुँह लटकाए हुए बैठ गया।

रामेश्वरी ने पानी लाकर रख दिया और पूछा-आज तुम दिन भर कहाँ रहे? लो, हाथ-मुँह धो डालो। रमा ने लोटा उठाया ही था कि जालपा ने आकर उग्र भाव से कहा-मुझे मेरे घर पहुंचा दो, इसी वक्त!

रमा ने लोटा रख दिया और उसकी ओर इस तरह ताकने लगा मानो उसकी बात समझ में न आई हो।

रामेश्वरी बोली-भला इस तरह कहीं बहू-बेटियाँ विदा होती हैं, कैसी बात करती हो, बहू?