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जालपा—मैं उन बहू-बेटियों में नहीं हूँ। मेरा जिस वक्त जी चाहेगा, जाऊँगी, जिस वक्त जी चाहेगा, आऊँगी। मुझे किसी का डर नहीं है। जब यहाँ कोई मेरी बात नहीं पूछता तो मैं भी किसी को अपना नहीं समझती। सारे दिन अनाथों की तरह पड़ी रहती हूँ, कोई झाँकता तक नहीं। मैं चिडिया नहीं हूँ, जिसका पिंजड़ा दाना-पानी रखकर बंद कर दिया जाए। मैं भी आदमी हूँ। अब इस घर में मैं क्षण भर न रुकूँगी। अगर कोई मुझे भेजने न जाएगा तो अकेली चली जाऊँगी। राह में कोई भेडिया नहीं बैठा है, जो मुझे उठा ले जाएगा और उठा भी ले जाए तो क्या गम। यहाँ कौन सा सुख भोग रही हूँ।

रमा ने सावधान होकर कहा-आखिर कुछ मालूम भी तो हो, क्या बात हुई?

जालपा–बात कुछ नहीं हुई, अपना जी है। यहाँ नहीं रहना चाहती।

रमानाथ-भला इस तरह जाओगी तो तुम्हारे घरवाले क्या कहेंगे, कुछ यह भी तो सोचो!

जालपा—यह सबकुछ सोच चुकी हूँ और ज्यादा नहीं सोचना चाहती। मैं जाकर अपने कपड़े बाँधती हूँ और इसी गाड़ी से जाऊँगी।

यह कहकर जालपा ऊपर चली गई। रमा भी पीछे-पीछे यह सोचता हुआ चला कि इसे कैसे शांत करूँ। जालपा अपने कमरे में जाकर बिस्तर लपेटने लगी कि रमा ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला—तुम्हें मेरी कसम, जो इस वक्त जाने का नाम लो!

जालपा ने त्योरी चढ़ाकर कहा-तुम्हारी कसम की हमें कुछ परवाह नहीं है।

उसने अपना हाथ छुड़ा लिया और फिर बिछावन लपेटने लगी। रमा खिसियाना-सा होकर एक किनारे खड़ा हो गया। जालपा ने बिस्तरबंद से बिस्तरे को बाँधा और फिर अपने संदूक को साफ करने लगी। मगर अब उसमें वह पहले सी तत्परता न थी, बार-बार संदूक बंद करती और खोलती।

वर्षा बंद हो चुकी थी, केवल छत पर रुका हुआ पानी टपक रहा था। आखिर वह उसी बिस्तर के बंडल पर बैठ गई और बोली-तुमने मुझे कसम क्यों दिलाई? रमा के हृदय में आशा की गुदगुदी हुई। बोला—इसके सिवा मेरे पास तुम्हें रोकने का और क्या उपाय था?

जालपा क्या तुम चाहते हो कि मैं यहीं घुट-घुटकर मर जाऊँ?

रमानाथ–तुम ऐसे मनहूस शब्द क्यों मुँह से निकालती हो? मैं तो चलने को तैयार हूँ, न मानोगी तो पहुँचाना ही पड़ेगा। जाओ, मेरा ईश्वर मालिक है, मगर कम-से-कम बाबूजी और अम्माँ से पूछ लो।

बुझती हुई आग में तेल पड़ गया। जालपा तड़पकर बोली—वह मेरे कौन होते हैं, जो उनसे पूछू?

रमानाथ-कोई नहीं होते?

जालपा-कोई नहीं! अगर कोई होते, तो मुझे यों न छोड़ देते। रुपए रखते हुए कोई अपने प्रियजनों का कष्ट नहीं देख सकता। ये लोग क्या मेरे आँसू न पोंछ सकते थे? मैं दिन-के-दिन यहाँ पड़ी रहती हूँ, कोई झूठों भी पूछता है? मुहल्ले की स्त्रियाँ मिलने आती हैं, कैसे मिलूँ ? यह सूरत तो मुझसे नहीं दिखाई जाती। न कहीं आना-जाना, न किसी से बात न चीत, ऐसे कोई कै दिन रह सकता है? मुझे इन लोगों से अब कोई आशा नहीं रही। आखिर दो