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रमानाथ–जरा भी जी नहीं चाहता, मैं जानता कि सिर मुड़ाते ही ओले पड़ेंगे तो मैं विवाह के नजदीक ही न जाता!

रमेश—अजी, दो-चार चालें चलो तो आप-ही-आप जी लग जाएगा। जरा अकल की गाँठ तो खुले।

बाजी शुरू हुई। कई मामूली चालों के बाद रमेश बाबू ने रमा का रुख पीट लिया।

रमानाथ–ओह, क्या गलती हुई!

रमेश बाबू की आँखों में नशे की सी लाली छाने लगी। शतरंज उनके लिए शराब से कम मादक न थी। बोलेबोहनी तो अच्छी हुई! तुम्हारे लिए मैं एक जगह सोच रहा हूँ, मगर वेतन बहुत कम है, केवल तीस रुपए। वह रंगी दाढ़ी वाले खाँ साहब नहीं हैं, उनसे काम नहीं होता। कई बार बचा चुका हूँ। सोचता था, जब तक किसी तरह काम चले, बने रहें। बाल-बच्चे वाले आदमी हैं। वह तो कई बार कह चुके हैं, मुझे छुट्टी दीजिए। तुम्हारे लायक तो वह जगह नहीं है, चाहो तो कर लो। यह कहते-कहते रमा का फीला मार लिया। रमा ने फीले को फिर उठाने की चेष्टा करके कहा, आप मुझे बातों में लगाकर मेरे मुहरे उड़ाते जाते हैं, इसकी सनद नहीं, लाओ मेरा फीला।। रमेश–देखो भाई, बेईमानी मत करो। मैंने तुम्हारा फीला जबरदस्ती तो नहीं उठाया। हाँ, तो तुम्हें वह जगह मंजूर है?

रमानाथ-वेतन तो तीस है।

रमेश-हाँ, वेतन तो कम है, मगर शायद आगे चलकर बढ़ जाए। मेरी तो राय है, कर लो।

रमानाथ-अच्छी बात है, आपकी सलाह है तो कर लूँगा।

रमेश-जगह आमदनी की है। मियाँ ने तो उसी जगह पर रहते हुए लड़कों को एम.ए., एल-एल.बी. करा लिया। दो कॉलेज में पढ़ते हैं। लड़कियों की शादियाँ अच्छे घरों में की। हाँ, जरा समझ-बूझकर काम करने की जरूरत है।

रमानाथ-आमदनी की मुझे परवाह नहीं, रिश्वत कोई अच्छी चीज तो है नहीं।

रमेश-बहुत खराब, मगर बाल-बच्चों वाले आदमी क्या करें? तीस रुपयों में गुजर नहीं हो सकती। मैं अकेला आदमी हूँ। मेरे लिए डेढ़ सौ काफी हैं। कुछ बचा भी लेता हूँ, लेकिन जिस घर में बहुत से आदमी हों, लड़कों की पढ़ाई हो, लड़कियों की शादियाँ हों, वह आदमी क्या कर सकता है? जब तक छोटे-छोटे आदमियों का वेतन इतना न हो जाएगा कि वह भलमनसी के साथ निर्वाह कर सके, तब तक रिश्वत बंद न होगी। यही रोटी-दाल, घी-दूध तो वह भी खाते हैं। फिर एक को तीस रुपए और दूसरे को तीन सौ रुपए क्यों देते हो? रमा का फर्जी पिट गया, रमेश बाबू ने बड़े जोर से कहकहा मारा। रमा ने रोष के साथ कहा-अगर आप चुपचाप खेलते हैं तो खेलिए, नहीं तो मैं जाता हूँ। मुझे बातों में लगाकर सारे मुहरे उड़ा लिए!

रमेश—अच्छा साहब, अब बोलूँ तो जबान पकड़ लीजिए। यह लीजिए-शह! तो तुम कल अर्जी दे दो। उम्मीद तो है, तुम्हें यह जगह मिल जाएगी, मगर जिस दिन जगह मिले, मेरे साथ रात भर खेलना होगा।

रमानाथ-आप तो दो ही मातों में रोने लगते हैं।

रमेश अजी वह दिन गए, जब आप मुझे मात दिया करते थे। आजकल चंद्रमा बलवान है। इधर मैंने एक मंत्र सिद्ध किया है। क्या मजाल कि कोई मात दे सके। फिर शह!