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रमा दफ्तर से घर पहुँचा तो चार बज रहे थे। वह दफ्तर ही में था कि आसमान पर बादल घिर आए। पानी आया ही चाहता था, पर रमा को घर पहुँचने की इतनी बेचैनी हो रही थी कि उससे रुका न गया। हाते के बाहर भी न निकलने पाया था कि जोर की वर्षा होने लगी। आषाढ़ का पहला पानी था, एक ही क्षण में वह लथपथ हो गया। फिर भी वह कहीं रुका नहीं। नौकरी मिल जाने का शुभ समाचार सुनाने का आनंद इस दौंगड़े की क्या परवाह कर सकता था? वेतन तो केवल तीस रुपए ही थे, पर जगह आमदनी की थी। उसने मन-ही-मन हिसाब लगा लिया था कि कितना मासिक बचत हो जाने से वह जालपा के लिए चंद्रहार बनवा सकेगा। अगर पचास-साठ रुपए महीने भी बच जाएँ तो पाँच साल में जालपा गहनों से लद जाएगी। कौन सा आभूषण कितने का होगा, इसका भी उसने अनुमान कर लिया था। घर पहुँचकर उसने कपड़े भी न उतारे, लथपथ जालपा के कमरे में पहुँच गया।

जालपा उसे देखते ही बोली—यह भीग कहाँ गए, रात कहाँ गायब थे?

रमानाथ—इसी नौकरी की फिक्र में पड़ा हुआ हूँ। इस वक्त दफ्तर से चला आता हूँ। म्युनिसिपैलिटी के दफ्तर में मुझे एक जगह मिल गई।

जालपा ने उछलकर पूछा–सच! कितने की जगह है?

रमा को ठीक-ठीक बतलाने में संकोच हुआ। तीस की नौकरी बताना अपमान की बात थी। स्त्री की नजरों में तुच्छ बनना कौन चाहता है। बोला—अभी तो चालीस मिलेंगे, पर जल्द तरक्की होगी। जगह आमदनी की है।

जालपा ने उसके लिए किसी बड़े पद की कल्पना कर रखी थी। बोली-चालीस में क्या होगा? भला साठ-सत्तर तो होते!

रमानाथ-मिल तो सकती थी सौ रुपए की भी, पर यहाँ रोब है और आराम है। पचास-साठ रुपए ऊपर से मिल जाएँगे।

जालपा—तो तुम घूस लोगे, गरीबों का गला काटोगे?

रमा ने हँसकर कहा—नहीं प्रिये, वह जगह ऐसी नहीं कि गरीबों का गला काटना पड़े। बड़े-बड़े महाजनों से रकमें मिलेंगी और वह खुशी से गले लगाएँगे।

मैं जिसे चाहूँ, दिनभर दफ्तर में खड़ा रखें, महाजनों का एक-एक मिनट एक-एक अशरफी के बराबर है। जल्द-सेजल्द अपना काम कराने के लिए वे खुशामद भी करेंगे, पैसे भी देंगे।

जालपा संतुष्ट हो गई, बोली-हाँ, तब ठीक है। गरीबों का काम यों ही कर देना।

रमानाथ-वह तो करूँगा ही।

जालपा–अभी अम्माँजी से तो नहीं कहा? जाकर कह आओ। मुझे तो सबसे बड़ी खुशी यही है कि अब मालूम होगा कि यहाँ मेरा भी कोई अधिकार है।