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रमानाथ-हाँ, जाता हूँ, मगर उनसे तो मैं बीस ही बतलाऊँगा।

जालपा ने उल्लसित होकर कहा–हाँ जी, बल्कि पंद्रह ही कहना, ऊपर की आमदनी की तो चर्चा ही करना व्यर्थ है। भीतर का हिसाब वे ले सकते हैं। मैं सबसे पहले चंद्रहार बनवाऊँगी।

इतने में डाकिए ने पुकारा। रमा ने दरवाजे पर जाकर देखा तो उसके नाम एक पार्सल आया था। महाशय दीनदयाल ने भेजा था। लेकर खुश-खुश घर में आए और जालपा के हाथों में रखकर बोले-तुम्हारे घर से आया है, देखो इसमें क्या है?

रमा ने चटपट कैंची निकाली और पार्सल खोला, उसमें देवदार की एक डिबिया निकली। उसमें एक चंद्रहार रखा हुआ था। रमा ने उसे निकालकर देखा और हँसकर बोला-ईश्वर ने तुम्हारी सुन ली, चीज तो बहुत अच्छी मालूम होती है।

जालपा ने कुंठित स्वर में कहा–अम्माँजी को यह क्या सूझी, यह तो उन्हीं का हार है। मैं तो इसे न लूँगी। अभी डाक का वक्त हो तो लौटा दो।

रमा ने विस्मित होकर कहा—लौटाने की क्या जरूरत है, वह नाराज न होंगी?

जालपा ने नाक सिकोड़कर कहा—मेरी बला से, रानी रूठेंगी, अपना सुहाग लेंगी। मैं उनकी दया के बिना भी जीती रह सकती हूँ। आज इतने दिनों के बाद उन्हें मुझ पर दया आई है। उस वक्त दया न आई थी, जब मैं उनके घर से विदा हुई थी। उनके गहने उन्हें मुबारक हों। मैं किसी का एहसान नहीं लेना चाहती। अभी उनके ओढ़नेपहनने के दिन हैं। मैं क्यों बाधक बनूँ? तुम कुशल से रहोगे तो मुझे बहुत गहने मिल जाएँगे। मैं अम्माँजी को यह दिखाना चाहती हूँ कि जालपा तुम्हारे गहनों की भूखी नहीं है।

रमा ने संतोष देते हुए कहा—मेरी समझ में तो तुम्हें हार रख लेना चाहिए। सोचो, उन्हें कितना दु:ख होगा! विदाई के समय यदि न दिया तो, तो अच्छा ही किया। नहीं तो और गहनों के साथ यह भी चला जाता।

जालपा—मैं इसे लूँगी नहीं, यह निश्चय है।

रमानाथ-आखिर क्यों?

जालपा–मेरी इच्छा!

रमानाथ-इस इच्छा का कोई कारण भी तो होगा?

जालपा रुंधे हुए स्वर में बोली—कारण यही है कि अम्माँजी इसे खुशी से नहीं दे रही हैं, बहुत संभव है कि इसे भेजते समय वह रोई भी हों और इसमें तो कोई संदेह ही नहीं कि इसे वापस पाकर उन्हें सच्चा आनंद होगा। देनेवाले का हृदय देखना चाहिए। प्रेम से यदि वह मुझे एक छल्ला भी दे दें तो मैं दोनों हाथों से ले लूँ। जब दिल पर जब करके दुनिया की लाज से या किसी के धिक्कारने से दिया, तो क्या दिया। दान भिखारिनियों को दिया जाता है। मैं किसी का दान न लूँगी, चाहे वह माता ही क्यों न हों?

माता के प्रति जालपा का यह दवेष देखकर रमा और कुछ न कह सका। वेष तर्क और प्रमाण नहीं सुनता। रमा ने हार ले लिया और चारपाई से उठता हुआ बोला-जरा अम्माँ और बाबूजी को तो दिखा दूँ। कम-से-कम उनसे