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बँधा हुआ है, खुली हुई बात है। लोग शौक से देते हैं। आप अमीर आदमी हैं, मगर रस्म न बिगाड़िएगा। एक बार कोई रस्म टूट जाती है तो उसका बँधना मुश्किल हो जाता है। इस एक आने में आधा चपरासियों का हक है। जो बड़े बाबू पहले थे, वह पचीस रुपए महीना लेते थे, मगर यह कुछ नहीं लेते।

रमा ने अरुचि प्रकट करते हुए कहा—गंदा काम है, मैं सफाई से काम करना चाहता हूँ।

बूढ़े मियाँ ने हँसकर कहा—अभी गंदा मालूम होता है, लेकिन फिर इसी में मजा आएगा।

खाँ साहब को विदा करके रमा अपनी कुरसी पर आ बैठा और एक चपरासी से बोला—इन लोगों से कहो, बरामदे के नीचे चले जाएँ। एक-एक करके नंबरवार आवें, एक कागज पर सबके नाम नंबरवार लिख लिया करो।

एक बनिया, जो दो घंटे से खड़ा था, खुश होकर बोला–हाँ सरकार, यह बहुत अच्छा होगा।

रमानाथ–जो पहले आवे, उसका काम पहले होना चाहिए। बाकी लोग अपना नंबर आने तक बाहर रहें। यह नहीं कि सबसे पीछे वाले शोर मचाकर पहले आ जाएँ और पहले वाले खड़े मुँह ताकते रहें।

कई व्यापारियों ने कहा-हाँ बाबूजी, यह इंतजाम हो जाए तो बहुत अच्छा हो, भभ्भड़ में बड़ी देर हो जाती है।

इतना नियंत्रण रमा का रोब जमाने के लिए काफी था। वणिक-समाज में आज ही उसके रंग-ढंग की आलोचना और प्रशंसा होने लगी। किसी बड़े कॉलेज के प्रोफेसर को इतनी ख्याति उम्रभर में न मिलती। दो-चार दिन के अनुभव से ही रमा को सारे दाँव-घात मालूम हो गए। ऐसी-ऐसी बातें सूझ गई, जो खाँ साहब को ख्वाब में भी न सूझी थीं। माल की तौल, गिनती और परख में इतनी धाँधली थी, जिसकी कोई हद नहीं। जब इस धाँधली से व्यापारी लोग सैकड़ों की रकम डकार जाते हैं, तो रमा बिल्टी पर एक आना लेकर ही क्यों संतुष्ट हो जाए, जिसमें आधा आना चपरासियों का है। माल की तौल और परख में दृढता से नियमों का पालन करके वह धन और कीर्ति दोनों ही कमा सकता है। यह अवसर वह क्यों छोड़ने लगा–विशेषकर जब बड़े बाबू उसके गहरे दोस्त थे। रमेश बाबू इस नए रंगरूट की कार्य-पटुता पर मुग्ध हो गए। उसकी पीठ ठोंककर बोले-कायदे के अंदर रहो और जो चाहो, करो। तुम पर आँच तक न आने पाएगी।

रमा की आमदनी तेजी से बढ़ने लगी। आमदनी के साथ प्रभाव भी बढ़ा। सूखी कलम घिसने वाले दफ्तर के बाबुओं को जब सिगरेट, पान, चाय या जलपान की इच्छा होती तो रमा के पास चले आते, उस बहती गंगा में सभी हाथ धो सकते थे। सारे दफ्तर में रमा की सराहना होने लगी। पैसे को तो वह ठीकरा समझता है! क्या दिल है कि वाह! और जैसा दिल है, वैसी ही जबान भी। मालूम होता है, नस-नस में शराफत भरी हुई है। बाबुओं का जब यह हाल था, तो चपरासियों और मुहर्रिरों का पूछना ही क्या? सब-के-सब रमा के बिना दामों गुलाम थे। उन गरीबों की आमदनी ही नहीं, प्रतिष्ठा भी खूब बढ़ गई थी। जहाँ गाड़ीवान तक फटकार दिया करते थे, वहाँ अब अच्छे-अच्छे की गरदन पकड़कर नीचे ढकेल देते थे। रमानाथ की तूती बोलने लगी।

मगर जालपा की अभिलाषाएँ अभी तक एक भी पूरी न हुई। नागपंचमी के दिन मुहल्ले की कई युवतियाँ जालपा के साथ कजली खेलने आईं, मगर जालपा अपने कमरे के बाहर नहीं निकली। भादों में जन्माष्टमी का उत्सव आया। पड़ोस ही में एक सेठजी रहते थे, उनके यहाँ बड़ी धूमधाम से उत्सव मनाया जाता था। वहाँ से सास और बहू को बुलावा आया। रामेश्वरी गई, जालपा ने जाने से इनकार किया। इन तीन महीनों में उसने रमा से एक बार भी आभूषण की चर्चा न की, पर उसका यह एकांत-प्रेम, उसके आचरण से उत्तेजक था। इससे ज्यादा उत्तेजक वह