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रमा का चित्त ग्लानि से व्याकुल हो उठा। जालपा के एक-एक शब्द से निराशा टपक रही थी। इस अपार वेदना का कारण कौन था? क्या यह भी उसी का दोष न था कि इन तीन महीनों में उसने कभी गहनों की चर्चा नहीं की? जालपा यदि संकोच के कारण इसकी चर्चा न करती थी, तो रमा को उसके आँसू पोंछने के लिए, उसका मन रखने के लिए, क्या मौन के सिवा दूसरा उपाय न था? मुहल्ले में रोज ही एक-न-एक उत्सव होता रहता है, रोज ही पासपड़ोस की औरतें मिलने आती हैं, बुलावे भी रोज आते ही रहते हैं, बेचारी जालपा कब तक इस प्रकार आत्मा का दमन करती रहेगी, अंदर-ही-अंदर कुढ़ती रहेगी। हँसने-बोलने को किसका जी नहीं चाहता, कौन कैदियों की तरह अकेला पड़ा रहना पसंद करता है? मेरे ही कारण तो इसे यह भीषण यातना सहनी पड़ रही है। उसने सोचा क्या किसी सर्राफ से गहने उधार नहीं लिए जा सकते? कई बड़े सर्राफों से उसका परिचय था, लेकिन उनसे वह यह बात कैसे कहता, कहीं वे इनकार कर दें तो या संभव है, बहाना करके टाल दें। उसने निश्चय किया कि अभी उधार लेना ठीक न होगा। कहीं वादे पर रुपए न दे सका, तो व्यर्थ में थुक्का-फजीहती होगी। लज्जित होना पड़ेगा। अभी कुछ दिन और धैर्य से काम लेना चाहिए। सहसा उसके मन में आया, इस विषय में जालपा की राय लूँ। देखू वह क्या कहती है। अगर उसकी इच्छा हो तो किसी सर्राफ से वादे पर चीजें ले ली जाएँ, मैं इस अपमान और संकोच को सह लूँगा। जालपा को संतुष्ट करने के लिए कि उसके गहनों की उसे कितनी फिक्र है! बोला, तुमसे एक सलाह करना चाहता हूँ। पूछूँ या न पूछूँ।

जालपा को नींद आ रही थी, आँखें बंद किए हुए बोली–अब सोने दो भई, सवेरे उठना है।

रमानाथ-अगर तुम्हारी राय हो, तो किसी सर्राफ से वादे पर गहने बनवा लाऊँ। इसमें कोई हर्ज तो है नहीं।

जालपा की आँखें खुल गईं। कितना कठोर प्रश्न था। किसी मेहमान से पूछना—कहिए तो आपके लिए भोजन लाऊँ, कितनी बड़ी अशिष्टता है। इसका तो यही आशय है कि हम मेहमान को खिलाना नहीं चाहते। रमा को चाहिए था कि चीजें लाकर जालपा के सामने रख देता। उसके बार-बार पूछने पर भी यही कहना चाहिए था कि दाम देकर लाया हूँ। तब वह अलबत्ता खुश होती। इस विषय में उसकी सलाह लेना, घाव पर नमक छिड़कना था। रमा की ओर अविश्वास की आँखों से देखकर बोली–मैं तो गहनों के लिए इतनी उत्सुक नहीं हूँ। रमानाथ–नहीं, यह बात नहीं, इसमें क्या हर्ज है कि किसी सर्राफ से चीजें ले लूँ। धीरे-धीरे उसके रुपए चुका दूंगा।

जालपा ने दृढता से कहा—नहीं, मेरे लिए कर्ज लेने की जरूरत नहीं। मैं वेश्या नहीं हूँ कि तुम्हें नोच-खसोटकर अपना रास्ता लूँ। मुझे तुम्हारे साथ जीना और मरना है। अगर मुझे सारी उम्र बे-गहनों के रहना पड़े तो भी मैं कुछ लेने को न कहूँगी। औरतें गहनों की इतनी भूखी नहीं होती। घर के प्राणियों को संकट में डालकर गहने पहनने वाली दूसरी होंगी, लेकिन तुमने तो पहले कहा था कि जगह बड़ी आमदनी की है, मुझे तो कोई विशेष बचत दिखाई नहीं देती।

रमानाथ–बचत तो जरूर होती और अच्छी होती, लेकिन जब अहलकारों के मारे बचने भी पाए। सब शैतान सिर पर सवार रहते हैं। मुझे पहले न मालूम था कि यहाँ इतने प्रेतों की पूजा करनी होगी।

जालपा तो अभी कौन सी जल्दी है, बनते रहेंगे धीरे-धीरे।

रमानाथ-खैर, तुम्हारी सलाह है तो एक-आध महीने और चुप रहता हूँ। मैं सबसे पहले कंगन बनवाऊँगा।

जालपा ने गद्‌गद होकर कहा—तुम्हारे पास अभी इतने रुपए कहाँ होंगे?