पृष्ठ:गबन.pdf/४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

11

दूसरे दिन सवेरे ही रमा ने रमेश बाबू के घर का रास्ता लिया। उनके यहाँ भी जन्माष्टमी में झाँकी होती थी। उन्हें स्वयं तो इससे कोई अनुराग न था, पर उनकी स्त्री उत्सव मनाती थी, उसी की यादगार में अब तक यह उत्सव मनाते थे। रमा को देखकर बोले-आओजी, रात क्यों नहीं आए? मगर यहाँ गरीबों के घर क्यों आते। सेठजी की झाँकी कैसे छोड़ देते। खूब बहार रही होगी!

रमानाथ-आपकी सी सजावट तो न थी, हाँ और सालों से अच्छी थी। कई कत्थक कलाकार और वेश्याएँ भी आई थीं। मैं तो चला आया था, मगर सुना रातभर गाना होता रहा।

रमेश-सेठजी ने तो वचन दिया था कि वेश्याएँ न आने पावेंगी, फिर यह क्या किया। इन मूर्तों के हाथों हिंदू-धर्म का सर्वनाश हो जाएगा। एक तो वेश्याओं का नाम यों भी बुरा, उस पर ठाकुरद्वारे में छिह-छिह, न जाने इन गधों को कब अक्ल आवेगी।

रमानाथ–वेश्याएँ न हों तो झाँकी देखने जाए ही कौन—सभी तो आपकी तरह योगी और तपस्वी नहीं हैं।

रमेश—मेरा वश चले, तो मैं कानून से यह दुराचार बंद कर दूँ। खैर, फुरसत हो तो आओ, एक-आधा बाजी हो जाए।

रमानाथ और आया किसलिए, मगर आज आपको मेरे साथ जरा सर्राफे तक चलना पड़ेगा। यों कई बड़ी-बड़ी कोठियों से मेरा परिचय है, मगर आपके रहने से कुछ और ही बात होगी।

रमेश–चलने को चला चलँगा, मगर इस विषय में मैं बिल्कुल कोरा हूँ। न कोई चीज बनवाई, न खरीदी। तुम्हें क्या कुछ लेना है?

रमानाथ–लेना-देना क्या है, जरा भाव-ताव देलूँगा।

रमेश–मालूम होता है, घर में फटकार पड़ी है।

रमानाथ–जी, बिल्कुल नहीं। वह तो जेवरों का नाम तक नहीं लेती। मैं कभी पूछता भी हूँ तो मना करती है, लेकिन अपना कर्तव्य भी तो कुछ है। जब से गहने चोरी चले गए, एक चीज भी नहीं बनी।

रमेश-मालूम होता है, कमाने का ढंग आ गया। क्यों न हो, कायस्थ के बच्चे हो। कितने रुपए जोड़ लिए?

रमानाथ–रुपए किसके पास हैं, वादे पर लूँगा।

रमेश इस खब्त में न पड़ो। जब तक रुपए हाथ में न हों, बाजार की तरफ जाओ ही मत। गहनों से तो बुड्ढे नई बीवियों का दिल खुश किया करते हैं, उन बेचारों के पास गहनों के सिवा होता ही क्या है? जवानों के लिए और बहुत से लटके हैं। यों मैं चाहूँ तो दो-चार हजार का माल दिलवा सकता हूँ, मगर भई, कर्ज की लत बुरी है।

रमानाथ—मैं दो-तीन महीनों में सब रुपए चुका दूँगा। अगर मुझे इसका विश्वास न होता तो मैं जिक्र ही न करता।

रमेश-तो दो-तीन महीने और सब्र क्यों नहीं कर जाते? कर्ज से बड़ा पाप दूसरा नहीं। न इससे बड़ी विपत्ति