पृष्ठ:गबन.pdf/५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

12

सर्राफे में गंगू की दुकान मशहूर थी। गंगू था तो ब्राह्मण, पर बड़ा ही व्यापार कुशल! उसकी दुकान पर नित्य ग्राहकों का मेला लगा रहता था। उसकी कर्मनिष्ठा ग्राहकों में विश्वास पैदा करती थी और दुकानों पर ठगे जाने का भय था। यहाँ किसी तरह का धोखा न था। गंगू ने रमा को देखते ही मुसकराकर कहा-आइए बाबूजी, ऊपर आइए। बड़ी दया की। मुनीमजी, आपके वास्ते पान मँगवाओ। क्या हुक्म है बाबूजी, आप तो जैसे मुझसे नाराज हैं। कभी आते ही नहीं, गरीबों पर भी कभी-कभी दया किया कीजिए।

गंगू की शिष्टता ने रमा की हिम्मत खोल दी। अगर उसने इतने आग्रह से न बुलाया होता तो शायद रमा को दुकान पर जाने का साहस न होता। अपनी साख का उसे अभी तक अनुभव न हुआ था। दुकान पर जाकर बोलायहाँ हम जैसे मजदूरों का कहाँ गुजर है, महराज! गाँठ में कुछ हो भी तो!

गंगू—यह आप क्या कहते हैं सरकार, आपकी दुकान है, जो चीज चाहिए ले जाइए, दाम आगे-पीछे मिलते रहेंगे। हम लोग आदमी पहचानते हैं बाबू साहब, ऐसी बात नहीं है। धन्य भाग कि आप हमारी दुकान पर आए तो। दिखाऊँ कोई जड़ाऊ चीज? कोई कंगन, कोई हार-अभी हाल ही में दिल्ली से माल आया है।

रमानाथ कोई हलके दामों का हार दिखाइए।

गंगू यही कोई सात-आठ सौ तक?

रमानाथ-अजी नहीं, हद चार सौ तक।

गंगू—मैं आपको दोनों दिखाए देता हूँ। जो पसंद आवे, ले लीजिएगा। हमारे यहाँ किसी तरह का दगल-फसल नहीं बाबू साहब! इसकी आप जरा भी चिंता न करें। पाँच बरस का लड़का हो या सौ बरस का बूढ़ा, सबके साथ एक बात रखते हैं। मालिक को भी एक दिन मुँह दिखाना है बाबूजी!

संदूक सामने आया, गंगू ने हार निकाल-निकालकर दिखाने शुरू किए। रमा की आँखें खुल गई, जी लोट-पोट हो गया। क्या सफाई थी! नगीनों की कितनी सुंदर सजावट! कैसी आब-ताब! उनकी चमक दीपक को मात करती थी। रमा ने सोच रखा था-सौ रुपए से ज्यादा उधार न लगाऊँगा, लेकिन चार सौ वाला हार आँखों में कुछ अँचता न था और जेब में सिर्फ तीन सौ रुपए थे। सोचा, अगर यह हार ले गया और जालपा ने पसंद न किया तो फायदा ही क्या? ऐसी चीज ले जाऊँ कि वह देखते ही फड़क उठे। यह जड़ाऊ हार उसकी गरदन में कितनी शोभा देगा! वह हार एक सहस्र मणि-रंजित नजरों से उसके मन को खींचने लगा। वह अभिभूत होकर उसकी ओर ताक रहा था, पर मुँह से कुछ कहने का साहस न होता था। कहीं गंगू ने तीन सौ रुपए उधार लगाने से इनकार कर दिया तो उसे कितना लज्जित होना पड़ेगा। गंगू ने उसके मन का संशय ताड़कर कहा-आपके लायक तो बाबूजी यही चीज है, अँधेरे घर में रख दीजिए तो उजाला हो जाए।

रमानाथ–पसंद तो मुझे भी यही है, लेकिन मेरे पास कुल तीन सौ रुपए हैं, यह समझ लीजिए।

शर्म से रमा के मुंह पर लाली छा गई। वह धड़कते हुए हृदय से गंगू का मुंह देखने लगा। गंगू ने निष्कपट भाव से कहा-बाबू साहब, रुपए का तो जिक्र ही न कीजिए। कहिए दस हजार का माल साथ भेज दूं। दुकान आपकी है,