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भला कोई बात है? हुक्म हो तो एक-आधा चीज और दिखाऊँ? एक शीशफूल अभी बनकर आया है, बस यही मालूम होता है, गुलाब का फूल खिला हुआ है। देखकर जी खुश हो जाएगा। मुनीमजी, जरा वह शीशफूल दिखाना तो और दाम का भी कुछ ऐसा भारी नहीं, आपको ढाई सौ में दे दूंगा।

रमा ने मुसकराकर कहा—महराज, बहुत बातें बनाकर कहीं उलटे छुरे से न मूंड़ लेना, गहनों के मामले में बिल्कुल अनाड़ी हूँ।

गंगू—ऐसा न कहो बाबूजी, आप चीज ले जाइए, बाजार में दिखा लीजिए, अगर कोई ढाई सौ से कौड़ी कम में दे दे तो मैं मुफ्त दे दूँगा। शीशफूल आया, सचमुच गुलाब का फूल था, जिस पर हीरे की कलियाँ ओस की बूंदों के समान चमक रही थीं। रमा की टकटकी बँध गई, मानो कोई अलौकिक वस्तु सामने आ गई हो।

गंगू बाबूजी, ढाई सौ रुपए तो कारीगर की सफाई के इनाम हैं। यह एक चीज है।

रमानाथ हाँ, है तो सुंदर, मगर भाई ऐसा न हो कि कल ही से दाम का तकाजा करने लगो। मैं खुद ही जहाँ तक हो सकेगा, जल्दी दे दूंगा।

गंगू ने दोनों चीजें दो सुंदर मखमली केसों में रखकर रमा को दे दी। फिर मुनीमजी से नाम टॅकवाया और पान खिलाकर विदा किया। रमा के मनोल्लास की इस समय सीमा न थी, किंतु यह विशुद्ध उल्लास न था, इसमें एक शंका का भी समावेश था। यह उस बालक का आनंद न था, जिसने माता से पैसे माँगकर मिठाई ली हो, बल्कि उस बालक का, जिसने पैसे चुराकर ली हो, उसे मिठाइयाँ मीठी तो लगती हैं, पर दिल काँपता रहता है कि कहीं घर चलने पर मार न पड़ने लगे। साढ़े छह सौ रुपए चुका देने की तो उसे विशेष चिंता न थी, घात लग जाए तो वह छह महीने में चुका देगा। भय यही था कि बाबूजी सुनेंगे तो जरूर नाराज होंगे, लेकिन ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता को इन आभूषणों से सुशोभित देखने की उत्कंठा इस शंका पर विजय पाती थी। घर पहुँचने की जल्दी में उसने सड़क छोड़ दी और एक गली में घुस गया। सघन अँधेरा छाया हुआ था। बादल तो उसी वक्त छाए हुए थे, जब वह घर से चला था। गली में घुसा ही था कि पानी की बूंद सिर पर छर्रे की तरह पड़ी। जब तक छतरी खोले, वह लथपथ हो चुका था। उसे शंका हुई, इस अंधकार में कोई आकर दोनों चीजें छीन न ले, पानी की झरझर में कोई आवाज भी न सुने। अँधेरी गलियों में खून तक हो जाते हैं। पछताने लगा, नाहक इधर से आया। दो-चार मिनट देर ही में पहुँचता तो ऐसी कौन सी आफत आ जाती। असामयिक वृष्टि ने उसकी आनंद-कल्पनाओं में बाधा डाल दी। किसी तरह गली का अंत हुआ और सड़क मिली। लालटेने दिखाई दीं। प्रकाश कितनी विश्वास उत्पन्न करनेवाली शक्ति है, आज इसका उसे यथार्थ अनुभव हुआ। वह घर पहुँचा तो दयानाथ बैठे हुक्का पी रहे थे। वह उस कमरे में न गया। उनकी आँख बचाकर अंदर जाना चाहता था कि उन्होंने टोका—इस वक्त कहाँ गए थे? रमा ने उन्हें कुछ जवाब न दिया। कहीं वह अखबार सुनाने लगे तो घंटों की खबर लेंगे। सीधा अंदर जा पहुंचा। जालपा द्वार पर खड़ी उसकी राह देख रही थी, तुरंत उसके हाथ से छतरी ले ली और बोली-तुम तो बिल्कुल भीग गए। कहीं ठहर क्यों न गए?

रमानाथ-पानी का क्या ठिकाना, रात भर बरसता रहे।

यह कहता हुआ रमा ऊपर चला गया। उसने समझा था, जालपा भी पीछे-पीछे आती होगी, पर वह नीचे बैठी अपने देवरों से बातें कर रही थी, मानो उसे गहनों की याद ही नहीं है। जैसे वह बिल्कुल भूल गई है कि रमा सर्राफे