पृष्ठ:गबन.pdf/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

हो रही थी, लेकिन क्या वह अपने प्रिय पुत्र पर ऋण का इतना भारी बोझ रख देगी? अभी वह बेचारा बालक है, उसकी सामर्थ्य ही क्या है? न जाने रुपए जल्द हाथ आएँ या देर में। दाम भी तो नहीं मालूम। अगर ऊँचे दामों का हुआ तो बेचारा देगा कहाँ से? उसे कितने तकाजे सहने पड़ेंगे और कितना लज्जित होना पड़ेगा। कातर स्वर में बोली नहीं बेटा, मैंने यों ही पहन लिया था। ले जाओ, लौटा दो।

माता का उदास मुख देखकर रमा का हृदय मातृ-प्रेम से हिल उठा। क्या ऋण के भय से वह अपनी त्यागमूर्ति माता की इतनी सेवा भी न कर सकेगा? माता के प्रति उसका कुछ कर्तव्य भी तो है? बोला-रुपए बहुत मिल जाएँगे अम्माँ, तुम इसकी चिंता मत करो। रामेश्वरी ने बहू की ओर देखा। मानो कह रही थी कि रमा मुझ पर कितना अत्याचार कर रहा है। जालपा उदासीन भाव से बैठी थी। कदाचित् उसे भय हो रहा था कि माताजी यह कंगन ले न लें। मेरा कंगन पहन लेना बहू को अच्छा नहीं लगा, इसमें जागेश्वरी को संदेह नहीं रहा। उसने तुरंत कंगन उतार डाला और जालपा की ओर बढ़ाकर बोली–मैं अपनी ओर से तुम्हें भेंट करती हूँ, मुझे जो कुछ पहनना-ओढ़ना था, ओढ़-पहन चुकी। अब जरा तुम पहनो। देखू। जालपा को इसमें जरा भी संदेह न था कि माताजी के पास रुपए की कमी नहीं। वह समझी, शायद आज वह पसीज गई हैं और कंगन के रुपए दे देंगी। एक क्षण पहले उसने समझा था कि रुपए रमा को देने पड़ेंगे, इसीलिए इच्छा रहने पर भी वह उसे लौटा देना चाहती थी। जब माताजी उसका दाम चुका रही थीं तो वह क्यों इनकार करती, मगर ऊपरी मन से बोली-रुपए न हों तो रहने दीजिए अम्माँजी, अभी कौन जल्दी है? रमा ने कुछ चिढ़कर कहा—तो तुम यह कंगन ले रही हो?

जालपा-अम्माँजी नहीं मानतीं तो मैं क्या करूँ?

रमानाथ—और ये रिंग, इन्हें भी क्यों नहीं रख लेती?

जालपा–जाकर दाम तो पूछ आओ।

रमा ने अधीर होकर कहा—तुम इन चीजों को ले जाओ, तुम्हें दाम से क्या मतलब!

रमा ने बाहर आकर दलाल से दाम पूछा तो सन्नाटे में आ गया। कंगन सात सौ के थे और रिंग डेढ़ सौ के, उसका अनुमान था कि कंगन अधिक-से-अधिक तीन सौ के होंगे और रिंग चालीस-पचास रुपए के, पछताए कि पहले ही दाम क्यों न पूछ लिए, नहीं तो इन चीजों को घर में ले जाने की नौबत ही क्यों आती? फेरते हुए शर्म आती थी, मगर कुछ भी हो, फेरना तो पड़ेगा ही। इतना बड़ा बोझ वह सिर पर नहीं ले सकता।

दलाल से बोला-बड़े दाम हैं भाई, मैंने तो तीन-चार सौ के भीतर ही आँका था। दलाल का नाम चरनदास था। बोला–दाम में एक कौड़ी फर्क पड़ जाए सरकार तो मुँह न दिखाऊँ। धनीराम की कोठी का तो माल है, आप चलकर पूछ लें। दमड़ी रुपए की दलाली अलबत्ता मेरी है, आपकी मरजी हो दीजिए या न दीजिए।

रमानाथ–तो भाई इन दामों की चीजें तो इस वक्त हमें नहीं लेनी हैं।

चरनदास-ऐसी बात न कहिए, बाबूजी! आपके लिए इतने रुपए कौन बड़ी बात है। दो महीने भी माल चल जाए तो उसके दूने हाथ आ जाएँगे। आपसे बढ़कर कौन शौकीन होगा। यह सब रईसों की ही पसंद की चीजें हैं। गँवार