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जालपा—अच्छा, चलो मैं ही कहे देती हूँ।

रमानाथ-वाह, फिर तो सब काम ही बन गया। रमा पीछे दुबक गया। जालपा दालान में आकर बोली-जरा यहाँ आना जी, ओ सर्राफ! लूटने आए हो या माल बेचने आए हो!

चरनदास बरामदे से उठकर द्वार पर आया और बोला-क्या हुक्म है सरकार। जालपा–माल बेचने आते हो या लूटने आते हो? सात सौ रुपए कंगन के माँगते हो? चरनदास सात सौ तो उसकी कारीगरी के दाम हैं, हुजूर!

जालपा—अच्छा तो जो उसपर सात सौ निछावर कर दे, उसके पास ले जाओ। रिंग के डेढ़ सौ कहते हो, लूट है क्या? मैं तो दोनों चीजों के सात सौ से अधिक न देंगी।

चरनदास-बहूजी, आप तो अँधेर करती हैं। कहाँ साढे आठ सौ और कहाँ सात सौ?

जालपा–तुम्हारी खुशी, अपनी चीज ले जाओ। चरनदास–इतने बड़े दरबार में आकर चीज लौटा ले जाऊँ? आप यों ही पहनें। दस-पाँच रुपए की बात होती तो आपकी जबान न फेरता। आपसे झूठ नहीं कहता बहूजी, इन चीजों पर पैसा रुपया नफा है। उसी एक पैसे में दुकान का भाड़ा, बट्टा-खाता, दस्तूरी, दलाली सब समझिए। एक बात ऐसी समझकर कहिए कि हमें भी चार पैसे मिल जाएँ। सवेरे-सवेरे लौटना न पड़े। जालपा–कह दिए, वही सात सौ। चरनदास ने ऐसा मुँह बनाया, मानो वह किसी धर्म-संकट में पड़ गया है। फिर बोला—सरकार, है तो घाटा ही, पर आपकी बात नहीं टालते बनती। रुपए कब मिलेंगे? जालपा-जल्दी ही मिल जाएंगे। जालपा अंदर जाकर बोली-आखिर दिया कि नहीं सात सौ में, डेढ़ सौ साफ उड़ाए लिए जाता था। मुझे पछतावा हो रहा है कि कुछ और कम क्यों न कहा। वे लोग इस तरह गाहकों को लूटते हैं। रमा इतना भारी बोझ लेते घबरा रहा था, लेकिन परिस्थिति ने कुछ ऐसा रंग पकड़ा कि बोझ उस पर लद ही गया। जालपा तो खुशी की उमंग में दोनों चीजें लिए ऊपर चली गई, पर रमा सिर झुकाए चिंता में डूबा खड़ा था। जालपा ने उसकी दशा जानकर भी इन चीजों को क्यों ठुकरा नहीं दिया, क्यों जोर देकर नहीं कहा-मैं न लूँगी, क्यों दुविधा में पड़ी रही? साढ़े पाँच सौ भी चुकाना मुश्किल था, इतने और कहाँ से आएँगे? असल में गलती मेरी ही है। मुझे दलाल को दरवाजे से ही दुत्कार देना चाहिए था, लेकिन उसने मन को समझाया। यह अपने ही पापों का तो प्रायश्चित्त है। फिर आदमी इसीलिए तो कमाता है। रोटियों के लाले थोड़े ही थे? भोजन करके जब रमा ऊपर कपड़े पहनने गया तो जालपा आईने के सामने खड़ी कानों में रिंग पहन रही थी। उसे देखते ही बोली-आज किसी अच्छे का मुँह देखकर उठी थी। दो चीजें मुफ्त हाथ आ गईं।