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जालपा-आठ सौ के थे।

रतन—कोई हरज नहीं, मगर बिल्कुल ऐसा ही हो, इसी नमूने का।

रमा हाँ-हाँ, बनवा दूंगा।

रतन–मगर भाई, अभी मेरे पास रुपए नहीं हैं।

रुपए के मामले में पुरुष महिलाओं के सामने कुछ नहीं कह सकता। क्या वह कह सकता है, इस वक्त मेरे पास रुपए नहीं हैं। वह मर जाएगा, पर यह उज्र न करेगा। वह कर्ज लेगा, दूसरों की खुशामद करेगा, पर स्त्री के सामने अपनी मजबूरी न दिखाएगा। रुपए की चर्चा को ही वह तुच्छ समझता है। जालपा पति की आर्थिक दशा अच्छी तरह जानती थी, पर यदि रमा ने इस समय कोई बहाना कर दिया होता तो उसे बहुत बुरा मालूम होता। वह मन में डर रही थी कि कहीं यह महाशय यह न कह बैठे, सर्राफ से पूछकर कहूँगा। उसका दिल धड़क रहा था, जब रमा ने वीरता के साथ कहा–हाँ-हाँ, रुपए की कोई बात नहीं, जब चाहे दे दीजिएगा, तो वह खुश हो गई। रतन तो कब तक आशा करूँ? रमानाथ-मैं आज ही सर्राफ से कह दूँगा, तब भी पंद्रह दिन तो लग ही जाएँगे। जालपा अब की रविवार को मेरे घर चाय पीजिएगा। रतन ने निमंत्रण सहर्ष स्वीकार किया और दोनों आदमी विदा हुए। घर पहुंचे, तो शाम हो गई थी। रमेश बाबू बैठे हुए थे। जालपा तो ताँगे से उतरकर अंदर चली गई, रमा रमेश बाबू के पास जाकर बोला—क्या आपको आए देर

रमेश–नहीं, अभी तो चला आ रहा हूँ। क्या वकील साहब के यहाँ गए थे? रमा जी हाँ, तीन रुपए की चपत पड़ गई। रमेश-कोई हरज नहीं, यह रुपए वसूल हो जाएंगे। बड़े आदमियों से राह-रस्म हो जाए तो बुरा नहीं है, बड़े-बड़े काम निकलते हैं। एक दिन उन लोगों को भी तो बुलाओ। रमा अबकी इतवार को चाय की दावत दे आया हूँ। रमेश–कहो तो मैं भी आ जाऊँ। जानते हो न, वकील साहब के एक भाई इंजीनियर हैं। मेरे एक साले बहुत दिनों से बेकार बैठे हैं। अगर वकील साहब उसकी सिफारिश कर दें, तो गरीब को जगह मिल जाए। तुम जरा मेरा इंट्रोडक्शन करा देना, बाकी और सब मैं कर लूँगा। पार्टी का इंतजाम ईश्वर ने चाहा, तो ऐसा होगा कि मेमसाहब खुश हो जाएँगी। चाय के सेट-शीशे के रंगीन गुलदान और फानूस मैं ला दूँगा। कुरसियाँ, मेजें, फर्श सब मेरे ऊपर छोड़ दो। न कुली की जरूरत, न मजूर की। उन्हीं मूसलचंद को रगेदूंगा। रमानाथ–तब तो बड़ा मजा रहेगा। मैं तो बड़ी चिंता में पड़ा हुआ था। रमेश–चिंता की कोई बात नहीं, उसी लौंडे को जोत दूंगा। कहूँगा, जगह चाहते हो तो कारगुजारी दिखाओ। फिर देखना, कैसी दौड़-धूप करता है।