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आपने अँगरेजी रुचि का आदर्श समझ लिया है खूब! मानता हूँ!

दयानाथ—यह तो आपकी जबान है, उसे किरंटा, चमरेशियन, पिलपिली, जो चाहें, कहें, लेकिन रंग को छोड़कर वह किसी बात में अंगरेजों से कम नहीं और उसके पहले तो यूरोपियन था।

रमेश इसका कोई जवाब सोच ही रहे थे कि एक मोटरकार द्वार पर आकर रुकी और रतनबाई उतरकर बरामदे में आई। तीनों आदमी चटपट बाहर निकल आए। रमा को इस वक्त रतन का आना बुरा मालूम हुआ। डर रहा था कि कहीं कमरे में भी न चली आए, नहीं तो सारी कलई खुल जाए। आगे बढ़कर हाथ मिलाता हुआ बोला–आइए, यह मेरे पिता हैं और यह मेरे दोस्त रमेश बाबू हैं, लेकिन उन दोनों सज्जनों ने न हाथ बढ़ाया और न जगह से हिले। सकपकाए से खड़े रहे। रतन ने भी उनसे हाथ मिलाने की जरूरत न समझी। दूर ही से उनको नमस्कार करके रमा से बोली- नहीं, बैलूंगी नहीं। इस वक्त फुरसत नहीं है। आपसे कुछ कहना था। यह कहते हुए वह रमा के साथ मोटर तक आई और आहिस्ता से बोली-आपने सर्राफ से कह तो दिया होगा?

रमा ने नि:संकोच होकर कहा—जी हाँ, बना रहा है।

रतन—उस दिन मैंने कहा था, अभी रुपए न दे सकूँगी, पर मैंने समझा शायद आपको कष्ट हो, इसलिए रुपए मँगवा लिए। आठ सौ चाहिए न?

जालपा ने कंगन के दाम आठ सौ बताए थे। रमा चाहता तो इतने रुपए ले सकता था, पर रतन की सरलता और विश्वास ने उसके हाथ पकड़ लिए। ऐसी उदार, निष्कपट रमणी के साथ वह विश्वासघात न कर सका। वह व्यापारियों से दो-दो, चार-चार आने लेते जरा भी न झिझकता था। वह जानता था कि वे सब भी ग्राहकों को उलटे छुरे से मँडते हैं। ऐसों के साथ ऐसा व्यवहार करते हए उसकी आत्मा को लेशमात्र भी संकोच न होता था, लेकिन इस देवी के साथ यह कपट व्यवहार करने के लिए किसी पुराने पापी की जरूरत थी। कुछ सकुचाता हुआ बोला, क्या जालपा ने कंगन के दाम आठ सौ बतलाए थे? उसे शायद याद न रही होगी। उसके कंगन छह सौ के हैं। आप चाहें तो आठ सौ का बनवा , रतन-नहीं, मुझे तो वही पसंद है। आप छह सौ का ही बनवाइए।

उसने मोटर पर से अपनी थैली उठाकर सौ-सौ रुपए के छह नोट निकाले।

रमा ने कहा-ऐसी जल्दी क्या थी, चीज तैयार हो जाती, तब हिसाब हो जाता।

रतन–मेरे पास रुपए खर्च हो जाते। इसलिए मैंने सोचा, आपके सिर पर लाद आऊँ। मेरी आदत है कि जो काम करती हूँ, जल्द-से-जल्द कर डालती हूँ। विलंब से मुझे उलझन होती है। यह कहकर वह मोटर पर बैठ गई, मोटर हवा हो गई। रमा संदूक में रुपए रखने के लिए अंदर चला गया, तो दोनों वृद्धजनों में बातें होने लगीं। रमेश—देखा? दयानाथ जी हाँ, आँखें खुली हुई थीं। अब मेरे घर में भी वही हवा आ रही है। ईश्वर ही बचावे। रमेश–बात तो ऐसी ही है, पर आजकल ऐसी ही औरतों का काम है। जरूरत पड़े, तो कुछ मदद तो कर सकती हैं। बीमार पड़ जाओ तो डॉक्टर को तो बुला ला सकती हैं। यहाँ तो चाहे हम मर जाएँ, तब भी क्या मजाल कि स्त्री