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रमेश तो चलो, मैं एक अच्छे सर्राफ से बनवा दूँ। यह झंझट तुमने बुरा मोल ले लिया। औरत का स्वभाव जानते नहीं। किसी पर विश्वास तो इन्हें आता ही नहीं। तुम चाहे दो-चार रुपए अपने पास ही से खर्च कर दो, पर वह यही समझेंगी कि मुझे लूट लिया। नेकनामी तो शायद ही मिले, हाँ, बदनामी तैयार खड़ी है।

रमानाथ-आप मूर्ख स्त्रियों की बातें कर रहे हैं। शिक्षित स्त्रियाँ ऐसी नहीं होती।

जरा देर बाद रमा अंदर जाकर जालपा से बोला—अभी तुम्हारी सहेली रतन आई थीं।

जालपा सच! तब तो बड़ा गड़बड़ हुआ होगा। यहाँ कुछ तैयारी तो थी ही नहीं।

रमानाथ-कुशल यही हुई कि कमरे में नहीं आई। कंगन के रुपए देने आई थीं। तुमने उनसे शायद आठ सौ रुपए बताए थे। मैंने छह सौ ले लिए। जालपा ने झेंपते हुए कहा-मैंने तो दिल्लगी की थी। जालपा ने इस तरह अपनी सफाई तो दे दी, लेकिन बहुत देर तक उसके मन में उथल-पुथल होती रही। रमा ने अगर आठ सौ रुपए ले लिए होते, तो शायद उथल-पुथल न होती। वह अपनी सफलता पर खुश होती, पर रमा के विवेक ने उसकी धर्म-बुद्धि को जगा दिया था। वह पछता रही थी कि मैं व्यर्थ झूठ बोली। यह मुझे अपने मन में कितनी नीच समझ रहे होंगे। रतन भी मुझे कितनी बेईमान समझ रही होगी।