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जो उसे पेशगी रुपए दे दिए। अब उससे रुपए निकलना मुश्किल है।

रतन—आप मुझे उसकी दुकान दिखा दीजिए, मैं उसके बाप से वसूल कर लूँगी। तावान अलग। ऐसे बेईमान आदमी को पुलिस में देना चाहिए। जालपा ने कहा हाँ और क्या, सभी सुनार देर करते हैं, मगर ऐसा नहीं, रुपए डकार जाएँ और चीज के लिए महीनों दौड़ाएँ। रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा—आप दस दिन और सब्र करें, मैं आज ही उससे रुपए लेकर किसी दूसरे सर्राफ को दे दूंगा। रतन—आप मुझे उस बदमाश की दुकान क्यों नहीं दिखा देते। मैं हंटर से बात करूँ।

रमानाथ–कहता तो हूँ। दस दिन के अंदर आपको कंगन मिल जाएँगे। रतन—आप खुद ही ढील डाले हुए हैं। आप उसकी लल्लो-चप्पो की बातों में आ जाते होंगे। एक बार कड़े पड़ जाते, तो मजाल थी कि यों हीलेहवाले करता!

आखिर रतन बड़ी मुश्किल से विदा हुई। उसी दिन शाम को गंगू ने साफ जवाब दे दिया, बिना आधे रुपए लिए कंगन न बन सकेंगे। पिछला हिसाब भी बेबाक हो जाना चाहिए।

रमा को मानो गोली लग गई। बोला-महराज, यह तो भलमनसी नहीं है। एक महिला की चीज है, उन्होंने पेशगी रुपए दिए थे। सोचो, मैं उन्हें क्या मुँह दिखाऊँगा? मुझसे अपने रुपयों के लिए पुरनोट लिखा लो, स्टांप लिखा लो और क्या करोगे?

गंगू–पुरनोट को शहद लगाकर चाहँगा क्या? आठ-आठ महीने का उधार नहीं होता। महीना, दो महीना बहुत है। आप तो बड़े आदमी हैं, आपके लिए पाँच-छह सौ रुपए कौन बड़ी बात है। कंगन तैयार हैं। रमा ने दाँत पीसकर कहा—अगर यही बात थी तो तुमने एक महीना पहले क्यों न कह दी? अब तक मैंने रुपए की कोई फिक्र की होती न!

गंगू-मैं क्या जानता था, आप इतना भी नहीं समझ रहे हैं।

रमा निराश होकर घर लौट आया। अगर इस समय भी उसने जालपा से सारा वृत्तांत साफ-साफ कह दिया होता तो उसे चाहे कितना ही दुःख होता, पर वह कंगन उतारकर दे देती, लेकिन रमा में इतना साहस न था। वह अपनी आर्थिक कठिनाइयों की दशा कहकर उसके कोमल हृदय पर आघात न कर सकता था। इसमें संदेह नहीं कि रमा को सौ रुपए के करीब ऊपर से मिल जाते थे और वह किफायत करना जानता तो इन आठ महीनों में दोनों सर्राफों के कम-से-कम आधे रुपए अवश्य दे देता, लेकिन ऊपर की आमदनी थी तो ऊपर का खर्च भी था। जो कुछ मिलता था, सैर-सपाटे में खर्च हो जाता और सर्राफों का देना किसी एकमुश्त रकम की आशा में रुका हुआ था। कौडियों से रुपए बनाना वणिकों का ही काम है। बाबू लोग तो रुपए की कौडियाँ ही बनाते हैं। कुछ रात जाने पर रमा ने एक बार फिर सर्राफे का चक्कर लगाया। बहुत चाहा, किसी सर्राफ को झाँसा दूँ, पर कहीं दाल न गली। बाजार में बेतार की खबरें चला करती हैं।