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रुपए माँग रही हैं, सर्राफ रुपए नहीं लौटा सकता।

रतन ने तीव्र नजरों से देखकर कहा-क्यों, रुपए क्यों न लौटाएगा?

रमानाथ—इसलिए कि जो चीज आपके लिए बनाई है, उसे वह कहाँ बेचता फिरेगा? संभव है, साल-छह महीने में बिक सके। सबकी पसंद एक सी तो नहीं होती।

रतन ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा-मैं कुछ नहीं जानती, उसने देर की है, उसका दंड भोगे। मुझे कल या तो कंगन ला दीजिए या रुपए। आपकी यदि सर्राफ से दोस्ती है, आप मुलाहिजे और मुरव्वत के सबब से कुछ न कह सकते हों, तो मुझे उसकी दुकान दिखा दीजिए। कहीं आपको शर्म आती हो तो उसका नाम बता दीजिए, मैं पता लगा लूँगी। वाह, अच्छी दिल्लगी! दुकान नीलाम करा दूंगी। जेल भिजवा दूंगी। इन बदमाशों से लड़ाई के बगैर काम नहीं चलता। रमा अप्रतिभ होकर जमीन की ओर ताकने लगा। वह कितनी मनहूस घड़ी थी, जब उसने रतन से रुपए लिए! बैठे-बिठाए विपत्ति मोल ली। जालपा ने कहा-सच तो है, इन्हें क्यों नहीं सर्राफ की दुकान पर ले जाते, चीज आँखों से देखकर इन्हें संतोष हो जाएगा। रतन—मैं अब चीज लेना ही नहीं चाहती।

रमा ने काँपते हुए कहा-अच्छी बात है, आपको रुपए कल मिल जाएँगे। रतन–कल किस वक्त? रमानाथ–दफ्तर से लौटते वक्त लेता आऊँगा। रतन—पूरे रुपए लूँगी। ऐसा न हो कि सौ-दो सौ रुपए देकर टाल दे। रमानाथ-कल आप अपने सब रुपए ले जाइएगा।

यह कहता हुआ रमा मरदाने कमरे में आया और रमेश बाबू के नाम एक रुक्का लिखकर गोपी से बोला—इसे रमेश बाबू के पास ले जाओ। जवाब लिखाते आना। फिर उसने एक दूसरा रुक्का लिखकर विश्वंभरदास को दिया कि माणिकदास को दिखाकर जवाब लाए।

विश्वंभर ने कहा-पानी आ रहा है।

रमानाथ तो क्या सारी दुनिया बह जाएगी! दौड़ते हुए जाओ।

विश्वंभर-और वह जो घर पर न मिलें?

रमानाथ-मिलेंगे। वह इस वक्त कहीं नहीं जाते।

आज जीवन में पहला अवसर था कि रमा ने दोस्तों से रुपए उधार माँगे। आग्रह और विनय के जितने शब्द उसे याद आए, उनका उपयोग किया। उसके लिए यह बिल्कुल नया अनुभव था। जैसे पत्र आज उसने लिखे, वैसे ही पत्र उसके पास कितनी ही बार आ चुके थे। उन पत्रों को पढ़कर उसका हृदय कितना द्रवित हो जाता था, पर विवश होकर उसे बहाने करने पड़ते थे। क्या रमेश बाबू भी बहाना कर जाएँगे उनकी आमदनी ज्यादा है, खर्च कम, वह चाहें तो रुपए का इंतजाम कर सकते हैं। क्या मेरे साथ इतना सुलूक भी न करेंगे? अब तक दोनों लड़के