पृष्ठ:गबन.pdf/७९

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लौटकर नहीं आए। वह दुवार पर टहलने लगा। रतन की मोटर अभी तक खड़ी थी। इतने में रतन बाहर आई और उसे टहलते देखकर भी कुछ बोली नहीं। मोटर पर बैठी और चल दी। दोनों कहाँ रह गए अब तक! कहीं खेलने लगे होंगे। शैतान तो हैं ही। जो कहीं रमेश रुपए दे दें, तो चाँदी है। मैंने दो सौ नाहक माँगे शायद इतने रुपए उनके पास न हों। ससुराल वालों की नोच-खसोट से कुछ रहने भी तो नहीं पाता। माणिक चाहे तो हजार-पाँच सौ दे सकता है, लेकिन देखा चाहिए, आज परीक्षा हो जाएगी। आज अगर इन लोगों ने रुपए न दिए तो फिर बात भी न पूलूंगा। किसी का नौकर नहीं हूँ कि जब वह शतरंज खेलने को बुलाएँ तो दौड़ा चला जाऊँ। रमा किसी की आहट पाता, तो उसका दिल जोर से धड़कने लगता था। आखिर विश्वंभर लौटा, माणिक ने लिखा था, आजकल बहुत तंग हूँ। मैं तो तुम्हीं से माँगने वाला था।

रमा ने पुरजा फाड़कर फेंक दिया। मतलबी कहीं का! अगर सब-इंस्पेक्टर ने माँगा होता तो पुरजा देखते ही रुपए लेकर दौड़े जाते। खैर, देखा जाएगा। चुंगी के लिए माल तो आएगा ही। इसकी कसर तब निकल जाएगी। इतने में गोपी भी लौटा। रमेश ने लिखा था, मैंने अपने जीवन में दो-चार नियम बना लिए हैं और बड़ी कठोरता से उनका पालन करता हूँ। उनमें से एक नियम यह भी है कि मित्रों से लेन-देन का व्यवहार न करूँगा। अभी तुम्हें अनुभव नहीं हुआ है, लेकिन कुछ दिनों में हो जाएगा कि जहाँ मित्रों से लेन-देन शुरू हुआ, वहाँ मनमुटाव होते देर नहीं लगती। तुम मेरे प्यारे दोस्त हो, मैं तुमसे दुश्मनी नहीं करना चाहता। इसलिए मुझे क्षमा करो। रमा ने इस पत्र को भी फाड़कर फेंक दिया और कुरसी पर बैठकर दीपक की ओर टकटकी बाँधकर देखने लगा। दीपक उसे दिखाई देता था, इसमें संदेह है। इतनी ही एकाग्रता से वह कदाचित् आकाश की काली, अभेद्य मेघ-राशि की ओर ताकता। मन की एक दशा वह भी होती है, जब आँखें खुली होती हैं और कुछ नहीं सूझता, कान खुले रहते हैं और कुछ नहीं सुनाई देता।