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रमानाथ-अभी तैयार नहीं था, मैंने समझा रुपए लेता चलूँ, जिसमें उन्हें तस्कीन हो जाए।

जालपा-क्या कहा सर्राफ ने?

रमानाथ–कहा क्या, आज-कल करता है। अभी रतन देवी आई नहीं?

जालपा-आती ही होगी, उसे चैन कहाँ?

जब चिराग जले तक रतन न आई, तो रमा ने समझा, अब न आएगी। रुपए आलमारी में रख दिए और घूमने चल दिया। अभी उसे गए दस मिनट भी न हुए होंगे कि रतन आ पहुंची और आते-ही-आते बोली-कंगन तो आ गए होंगे?

जालपा–हाँ आ गए हैं, पहन लो! बेचारे कई दफा सर्राफ के पास गए। अभागा देता ही नहीं, हीले-हवाले करता है। रतन–कैसा सर्राफ है कि इतने दिन से हीले-हवाले कर रहा है। मैं जानती कि रुपए झमेले में पड़ जाएँगे, तो देती ही क्यों? न रुपए मिलते हैं, न कंगन मिलता है! रतन ने यह बात कुछ ऐसे अविश्वास के भाव से कही कि जालपा जल उठी। गर्व से बोली आपके रुपए रखे हुए हैं, जब चाहिए, ले जाइए। अपने बस की बात तो है नहीं। आखिर जब सर्राफ देगा, तभी तो लाएँगे? रतन कुछ वादा करता है, कब तक देगा? जालपा—उसके वादों का क्या ठीक, सैकड़ों वादे तो कर चुका है। रतन–तो इसके मानी यह है कि अब वह चीज न बनाएगा?

जालपा–जो चाहे, समझ लो!

रतन-तो मेरे रुपए ही दे दो, बाज आई ऐसे कंगन से।

जालपा झमककर उठी, आलमारी से थैली निकाली और रतन के सामने पटककर बोली ये आपके रुपए रखे हैं, ले जाइए। वास्तव में रतन की अधीरता का कारण वही था, जो रमा ने समझा था। उसे भ्रम हो रहा था कि इन लोगों ने मेरे रुपए खर्च कर डाले। इसीलिए वह बार-बार कंगन का तकाजा करती थी। रुपए देखकर उसका भ्रम शांत हो गया। कुछ लज्जित होकर बोली-अगर दो-चार दिन में देने का वादा करता हो तो रुपए रहने दो।

जालपा–मुझे तो आशा नहीं है कि इतनी जल्द दे दे। जब चीज तैयार हो जाएगी तो रुपए माँग लिए जाएंगे। रतन क्या जाने उस वक्त मेरे पास रुपए रहें या न रहें। रुपए आते तो दिखाई देते हैं, जाते नहीं दिखाई देते। न जाने किस तरह उड़ जाते हैं। अपने ही पास रख लो तो क्या बुरा?

जालपा तो यहाँ भी तो वही हाल है। फिर पराई रकम घर में रखना जोखिम की बात भी तो है। कोई गोलमाल हो जाए तो व्यर्थ का दंड देना पड़े। मेरे ब्याह के चौथे ही दिन मेरे सारे गहने चोरी चले गए। हम लोग जागते ही रहे, पर न जाने कब आँख लग गई और चोरों ने अपना काम कर लिया। दस हजार की चपत पड़ गई। कहीं वही