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रमा झूले पर से उतर आया तो उसका चेहरा सहमा हुआ था। मालूम होता था, अब गिरा, अब गिरा। वह लड़खड़ाता हुआ साइकिल की ओर चला और उसपर बैठकर तुरंत घर भागा। कुछ दूर तक उसे कुछ होश न रहा। पाँव आप ही आप पैडल घुमाते जाते थे, आधी दूर जाने के बाद उसे होश आया। उसने साइकिल घुमा दी, कुछ दूर चला, फिर उतरकर सोचने लगा, आज संकोच में पड़कर कैसी बाजी हाथ से खोई, वहाँ से चुपचाप अपना सा मुँह लिए लौट आया। क्यों उसके मुँह से आवाज नहीं निकली? रतन कुछ हौवा तो थी नहीं, जो उसे खा जाती। सहसा उसे याद आया, थैली में आठ सौ रुपए थे, जालपा ने झुंझलाकर थैली की थैली उसके हवाले कर दी। शायद, उसने भी गिना नहीं, नहीं तो जरूर कहती। कहीं ऐसा न हो, थैली किसी को दे दे, या और रुपयों में मिला दे तो गजब ही हो जाए। कहीं का न रहूँ। क्यों न इसी वक्त चलकर बेशी रुपए माँग लाऊँ, लेकिन देर बहुत हो गई है, सबेरे फिर आना पड़ेगा, मगर यह दो सौ रुपए मिल भी गए, तब भी तो पाँच सौ रुपयों की कमी रहेगी। उसका क्या प्रबंध होगा? ईश्वर ही बेड़ा पार लगाएँ तो लग सकता है।

सबेरे कुछ प्रबंध न हुआ तो क्या होगा! यह सोचकर वह काँप उठा। जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं, जब निराशा में भी हमें आशा होती है। रमा ने सोचा, एक बार फिर गंगू के पास चलूँ शायद दुकान पर मिल जाए, उसके हाथ-पाँव जोड़ें। संभव है, कुछ दया आ जाए। वह सर्राफे जा पहुँचा, मगर गंगू की दुकान बंद थी। वह लौटा ही था कि चरनदास आता हआ दिखाई दिया।

रमा को देखते ही बोला, बाबूजी, आपने तो इधर का रास्ता ही छोड़ दिया। कहिए रुपए कब तक मिलेंगे? रमा ने विनम्र भाव से कहा-अब बहुत जल्द मिलेंगे भाई, देर नहीं है। देखो गंगू के रुपए चुकाए हैं, अबकी तुम्हारी बारी है।

चरनदास—वह सब किस्सा मालूम है, गंगू ने होशियारी से अपने रुपए न ले लिए होते तो हमारी तरह टापा करते। साल भर हो रहा है। रुपए सैकड़े का सूद भी रखिए तो चौरासी रुपए होते हैं। कल आकर हिसाब कर जाइए, सब नहीं तो आधा-तिहाई कुछ दे दीजिए। लेते-देते रहने से मालिक को ढाढ़स रहता है। कान में तेल डालकर बैठे रहने से तो उसे शंका होने लगती है कि इनकी नीयत खराब है। तो कल कब आइएगा? रमानाथ–भई, कल मैं रुपए लेकर तो न आ सकूँगा, यों जब कहो, तब चला आऊँ। क्यों, इस वक्त अपने सेठजी से चार-पाँच सौ रुपयों का बंदोबस्त न करा दोगे? तुम्हारी मुट्ठी भी गरम कर दूंगा।

चरनदास–कहाँ की बात लिए फिरते हो बाबूजी, सेठजी एक कौड़ी तो देंगे नहीं। उन्होंने यही बहुत सलूक किया कि नालिश नहीं कर दी। आपके पीछे मुझे बातें सुननी पड़ती हैं। क्या बड़े मुंशीजी से कहना पड़ेगा? रमा ने झल्लाकर कहा-तुम्हारा देनदार मैं हूँ, बड़े मुंशी नहीं हैं। मैं मर नहीं गया हूँ, घर छोड़कर भागा नहीं जाता हूँ। इतने अधीर क्यों हुए जाते हो?

चरनदास—साल भर हुआ, एक कौड़ी नहीं मिली, अधीर न हों तो क्या हों? कल कम-से-कम दो सौ की फिकर कर रखिएगा।

रमानाथ-मैंने कह दिया, मेरे पास अभी रुपए नहीं हैं।

चरनदास–रोज गठरी काट-काटकर रखते हो, उस पर कहते हो, रुपए नहीं हैं। कल रुपए जुटा रखना। कल