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रमा हाँ जी, नींद उचट गई है। मैं सोच रहा था, तुम्हारे पास दो सौ रुपए कहाँ से आ गए? मुझे इसका आश्चर्य है।

जालपा–ये रुपए मैं मायके से लाई थी, कुछ बिदाई में मिले थे, कुछ पहले से रखे थे।

रमानाथ–तब तो तुम रुपए जमा करने में बड़ी कुशल हो। यहाँ क्यों नहीं कुछ जमा किया?

जालपा ने मुसकराकर कहा-तुम्हें पाकर अब रुपए की परवाह नहीं रही।

रमानाथ-अपने भाग्य को कोसती होगी!

जालपा—भाग्य को क्यों कोतूं, भाग्य को वह औरतें रोएँ, जिनका पति निखट्टू हो-शराबी हो, दुराचारी हो, रोगी हो, तानों से स्त्री को छेदता रहे, बात-बात पर बिगड़े। पुरुष मन का हो तो स्त्री उसके साथ उपवास करके भी प्रसन्न रहेगी। रमा ने विनोद भाव से कहा तो मैं तुम्हारे मन का हूँ! जालपा ने प्रेम-पूर्ण गर्व से कहा—मेरी जो आशा थी, उससे तुम कहीं बढ़कर निकले। मेरी तीन सहेलियाँ हैं। एक का भी पति ऐसा नहीं। एक एम.ए. है, पर सदा रोगी। दूसरा विद्वान् भी है और धनी भी, पर वेश्यागामी। तीसरा घरघुस्सू है और बिल्कुल निखटू।

रमा का हृदय गद्गद हो उठा। ऐसी प्रेम की मूर्ति और दया की देवी के साथ उसने कितना बड़ा विश्वासघात किया! इतना दुराव रखने पर भी जब इसे मुझसे इतना प्रेम है, तो मैं अगर उससे निष्कपट होकर रहता तो मेरा जीवन कितना आनंदमय होता!