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वह बाहर के कमरे में बैठ गया। जालपा दौड़कर ऊपर से रुपए लाई और गिन-गिनकर उसकी थैली में डाल दिए। उसने समझा था, रमा रुपए पाकर फूला न समाएगा, पर उसकी आशा पूरी न हुई। अभी तीन सौ रुपए की फिक्र करनी थी। वह कहाँ से आएँगे? भूखा आदमी इच्छापूर्ण भोजन चाहता है, दो-चार फुलकों से उसकी तुष्टि नहीं होती। सड़क पर आकर रमा ने एक ताँगा लिया और उससे जार्जटाउन चलने को कहा, शायद रतन से भेंट हो जाए। वह चाहे तो तीन सौ रुपए का बड़ी आसानी से प्रबंध कर सकती है। रास्ते में वह सोचता जाता था, आज बिल्कुल संकोच न करूँगा। जरा देर में जार्जटाउन आ गया। रतन का बँगला भी आया। वह बरामदे में बैठी थी। रमा ने उसे देखकर हाथ उठाया, उसने भी हाथ उठाया, पर वहाँ उसका सारा संयम टूट गया। वह बँगले में न जा सका। ताँगा सामने से निकल गया। रतन बुलाती तो वह चला जाता। वह बरामदे में न बैठी होती, तब भी शायद वह अंदर जाता, पर उसे सामने बैठे देखकर वह संकोच में डूब गया। जब ताँगा गवर्नमेंट हाउस के पास पहुँचा तो रमा ने चौंककर कहा-चुंगी के दफ्तर चलो। ताँगे वाले ने घोड़ा उधर मोड़ दिया।

ग्यारह बजते-बजते रमा दफ्तर पहुँचा। उसका चेहरा उतरा हुआ था। छाती धड़क रही थी। बड़े बाबू ने जरूर पूछा होगा। जाते ही बुलाएँगे। दफ्तर में जरा भी रियायत नहीं करते। ताँगे से उतरते ही उसने पहले अपने कमरे की तरफ निगाह डाली। देखा, कई आदमी खड़े उसकी राह देख रहे हैं। वह उधर न जाकर रमेश बाबू के कमरे की ओर गया। रमेश बाबू ने पूछा-तुम अब तक कहाँ थे जी, खजाँची साहब तुम्हें खोजते-फिरते हैं? चपरासी मिला था? रमा ने अटकते हुए कहा-मैं घर पर न था। जरा वकील साहब की तरफ चला गया था। एक बड़ी मुसीबत में फंस गया हूँ। रमेश-कैसी मुसीबत, घर पर तो कुशल है। रमानाथ जी हाँ, घर पर तो कुशल है। कल शाम को यहाँ काम बहुत था, मैं उसमें ऐसा फँसा कि वक्त की कुछ खबर ही न रही। जब काम खत्म करके उठा तो खजाँची साहब चले गए थे। मेरे पास आमदनी के आठ सौ रुपए थे। सोचने लगा इसे कहाँ रखू, मेरे कमरे में कोई संदूक है नहीं। यही निश्चय किया कि साथ लेता जाऊँ। पाँच सौ रुपए नकद थे, वह तो मैंने थैली में रखे तीन सौ रुपए के नोट जेब में रख लिए और घर चला। चौक में एक-दो चीजें लेनी थीं। उधर से होता हुआ घर पहुँचा तो नोट गायब थे। रमेश बाबू ने आँखें गाड़कर कहा–तीन सौ के नोट गायब हो गए?

रमानाथ जी हाँ, कोट के ऊपर की जेब में थे। किसी ने निकाल लिए।

रमेश और तुमको मारकर थैली नहीं छीन ली?

रमानाथ-क्या बताऊँ बाबूजी, तब से चित्त की जो दशा हो रही है, वह बयान नहीं कर सकता, तब से अब तक इसी फिक्र में दौड़ रहा हूँ। कोई बंदोबस्त न हो सका। रमेश अपने पिता से तो कहा ही न होगा?

रमानाथ–उनका स्वभाव तो आप जानते हैं। रुपए तो न देते, उलटी डाँट सुनाते। रमेश तो फिर क्या फिक्र करोगे?