वकील साहब रतन से बोले क्यों, तुमने कोई चीज पसंद की?
रतन–हाँ, एक हार पसंद किया है, बारह सौ रुपए माँगते हैं। वकील-बस और कोई चीज पसंद करो। तुम्हारे पास सिर की कोई अच्छी चीज नहीं है। रतन—इस वक्त मैं यही एक हार लूँगी। आजकल सिर की चीजें कौन पहनता है। वकील-लेकर रख लो, पास रहेगी तो कभी पहन भी लोगी। नहीं तो कभी दूसरों को पहने देख लिया तो कहोगी, मेरे पास होता तो मैं भी पहनती।
वकील साहब को रतन से पति का सा प्रेम नहीं, पिता का सा स्नेह था, जैसे कोई स्नेही पिता मेले में लड़कों से पूछ-पूछकर खिलौने लेता है, वह भी रतन से पूछ-पूछकर खिलौने लेते थे। उसके कहने भर की देर थी। उनके पास उसे प्रसन्न करने के लिए धन के सिवा और चीज ही क्या थी। उन्हें अपने जीवन में एक आधार की जरूरत थीसदेह आधार की, जिसके सहारे वह इस जीर्ण दशा में भी जीवन-संग्राम में खड़े रह सकें, जैसे किसी उपासक को प्रतिमा की जरूरत होती है। बिना प्रतिमा के वह किस पर फल चढ़ाए, किसे गंगा-जल से नहलाए, किसे स्वादिष्ट चीजों का भोग लगाए। इसी भाँति वकील साहब को भी पत्नी की जरूरत थी। रतन उनके लिए सदेह कल्पना मात्र थी, जिससे उनकी आत्मिक पिपासा शांत होती थी। कदाचित् रतन के बिना उनका जीवन उतना ही सूना होता, जितना आँखों के बिना मुख। रतन ने केस में से हार निकालकर वकील साहब को दिखाया और बोली-इसके बारह सौ रुपए माँगते हैं।
वकील साहब की निगाह में रुपए का मूल्य आनंददायिनी शक्ति थी। अगर हार रतन को पसंद है तो उन्हें इसकी परवाह न थी कि इसके क्या दाम देने पड़ेंगे। उन्होंने चेक निकालकर जौहरी की तरफ देखा और पूछा–सच-सच बोलो, कितना लिखू।
जौहरी ने हार को उलट-पलटकर देखा और हिचकते हुए बोला-साढ़े ग्यारह सौ कर दीजिए। वकील साहब ने चेक लिखकर उसको दिया और वह सलाम करके चलता बना। रतन का मुख इस समय वसंत की प्राक की भाँति विहसित था। ऐसा गर्व, ऐसा उल्लास उसके मुख पर कभी न दिखाई दिया था। मानो उसे संसार की संपत्ति मिल गई है। हार को गले में लटकाए वह अंदर चली गई। वकील साहब के आचार-विचार में नई और पुरानी प्रथाओं का विचित्र मेल था। भोजन वह अभी तक किसी ब्राह्मण के हाथ का भी न खाते थे। आज रतन उनके लिए अच्छी-अच्छी चीजें बनाने गई, अपनी कृतज्ञता को वह कैसे जाहिर करे। रमा कुछ देर तक तो बैठा वकील साहब का यूरोप-गौरव-गान सुनता रहा, अंत में निराश होकर चल दिया।