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अगर इस समय किसी को संसार में सबसे दुःखी, जीवन से निराश, चिंताग्नि में जलते हुए प्राणी की मूर्ति देखनी हो तो उस युवक को देखे, जो साइकिल पर बैठा हुआ, अल्फ्रेड पार्क के सामने चला जा रहा है। इस वक्त अगर कोई काला साँप नजर आए तो वह दोनों हाथ फैलाकर उसका स्वागत करेगा और उसके विष को सुधा की तरह पिएगा। उसकी रक्षा सुधा से नहीं, अब विष ही से हो सकती है। मौत ही अब उसकी चिंताओं का अंत कर सकती है, लेकिन क्या मौत उसे बदनामी से भी बचा सकती है? सवेरा होते ही यह बात घर-घर फैल जाएगी, सरकारी रुपया खा गया और जब पकड़ा गया, तब आत्महत्या कर ली! कुल में कलंक लगाकर मरने के बाद भी अपनी हँसी कराके चिंताओं से मुक्त हुआ तो क्या, लेकिन दूसरा उपाय ही क्या है। अगर वह इस समय जाकर जालपा से सारी स्थिति कह सुनाए तो वह उसके साथ अवश्य सहानुभूति दिखाएगी। जालपा को चाहे कितना ही दुःख हो, पर अपने गहने निकालकर देने में एक क्षण का भी विलंब न करेगी। गहनों को गिरवी रखकर वह सरकारी रुपए अदा कर सकता है। उसे अपना परदा खोलना पड़ेगा। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है।
मन में यह निश्चय करके रमा घर की ओर चला, पर उसकी चाल में वह तेजी न थी, जो मानसिक स्फूर्ति का लक्षण है, लेकिन घर पहुँचकर उसने सोचा, जब यही करना है तो जल्दी क्या है, जब चाहूँगा, माँग लूँगा। कुछ देर गप-शप करता रहा, फिर खाना खाकर लेटा।
सहसा उसके जी में आया, क्यों न चुपके से कोई चीज उठा ले जाऊँ? कुल मर्यादा की रक्षा करने के लिए एक बार उसने ऐसा ही किया था। उसी उपाय से क्या वह प्राणों की रक्षा नहीं कर सकता-अपनी जबान से तो शायद वह कभी अपनी विपत्ति का हाल न कह सकेगा। इसी
प्रकार आगा-पीछा में पड़े हुए सवेरा हो जाएगा और तब उसे कुछ कहने का अवसर ही न मिलेगा। मगर उसे फिर शंका हुई, कहीं जालपा की आँख खुल जाए? फिर तो उसके लिए त्रिवेणी के सिवा और स्थान ही न रह जाएगा। जो कुछ भी हो, एक बार तो यह उद्योग करना ही
पड़ेगा। उसने धीरे से जालपा का हाथ अपनी छाती पर से हटाया और नीचे खड़ा हो गया। उसे ऐसा खयाल हुआ कि जालपा हाथ हटाते ही चौंकी और फिर मालूम हुआ कि यह भ्रम-मात्र था। उसे अब जालपा के सलूके की जेब से चाभियों का गुच्छा निकालना था। देर करने का अवसर न था। नींद में भी निम्न चेतना अपना काम करती रहती है। बालक कितना ही गाफिल सोया हो, माता के चारपाई से उठते ही जाग पड़ता है, लेकिन जब चाभी निकालने के लिए झुका तो उसे जान पड़ा जालपा मुसकरा रही है। उसने झट हाथ खींच लिया और लैंप के क्षीण प्रकाश में जालपा के मुख की ओर देखा, जो कोई सुखद स्वप्न देख रही थी। उसकी स्वप्न-सुख विलसित छवि देखकर उसका मन कातर हो उठा। हा! इस सरला के साथ मैं ऐसा विश्वासघात करूँ? जिसके लिए मैं अपने प्राणों को भेंट कर सकता हूँ, उसी के साथ यह कपट? जालपा का निष्कपट स्नेहपूर्ण हृदय मानो उसके मुखमंडल पर अंकित हो रहा था। आह! जिस समय इसे ज्ञात होगा इसके गहने फिर चोरी हो गए, इसकी क्या दशा होगी? पछाड़ खाएगी, सिर के बाल नोचेगी। वह किन आँखों से उसका यह क्लेश देखेगा? उसने सोचा, मैंने इसे आराम ही कौन सा पहुँचाया है। किसी दूसरे से विवाह होता तो अब तक वह रत्नों से लद जाती। दुर्भाग्यवश इस घर में आई, जहाँ कोई सुख नहीं, उलटे और रोना पड़ा।