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रमा फिर चारपाई पर लेटा रहा। उसी वक्त जालपा की आँखें खुल गई। उसके मुख की ओर देखकर बोली—तुम कहाँ गए थे? मैं अच्छा सपना देख रही थी। बड़ा बाग है और हम-तुम दोनों उसमें टहल रहे हैं। इतने में तुम न जाने कहाँ चले जाते हो। एक और साधु आकर मेरे सामने खड़ा हो जाता है। बिल्कुल देवताओं का सा उसका स्वरूप है। वह मुझसे कहता है-बेटी, मैं तुझे वर देने आया हूँ। माँग, क्या माँगती है? मैं तुम्हें इधर-उधर खोज रही हूँ कि तुमसे पूछू कि क्या माँगू और तुम कहीं दिखाई नहीं देते। मैं सारा बाग छान आई। पेड़ों पर झाँककर देखा, तुम नजाने कहाँ चले गए हो? बस इतने में नींद खुल गई, वरदान न माँगने पाई।

रमा ने मुसकराते हुए कहा—क्या वरदान माँगती? 'माँगती जो जी में आता, तुम्हें क्यों बता दूँ?' 'नहीं, बताओ! शायद तुम बहुत सा धन माँगती।' "धन को तुम बहुत बड़ी चीज समझते होगे? मैं तो कुछ नहीं समझती।'

'हाँ, मैं तो समझता हूँ। निर्धन रहकर जीना मरने से भी बदतर है। मैं अगर किसी देवता को पकड़ पाऊँ तो बिना काफी रुपए लिए न मानूं। मैं सोने की दीवार नहीं खड़ी करना चाहता, न रॉकफेलर और कारनेगी बनने की मेरी

। मैं केवल इतना धन चाहता हूँ कि जरूरत की मामूली चीजों के लिए तरसना न पड़े। बस कोई देवता मुझे पाँच लाख दे दे तो मैं फिर उससे कुछ न माँगूंगा। हमारे ही गरीब मुल्क में ऐसे कितने ही रईस, सेठ, ताल्लुकेदार हैं, जो पाँच लाख एक साल में खर्च करते हैं, बल्कि कितनों ही का तो माहवार खर्च पाँच लाख होगा। मैं तो इसमें सात जीवन काटने को तैयार हूँ, मगर मुझे कोई इतना भी नहीं देता। तुम क्या माँगती—अच्छे-अच्छे गहने!' जालपा ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा-क्यों चिढ़ाते हो मुझे क्या मैं गहनों पर और स्त्रियों से ज्यादा जान देती हूँ। मैंने तो तुमसे कभी आग्रह नहीं किया? तुम्हें जरूरत हो, आज इन्हें उठा ले जाओ, मैं खुशी से दे दूंगी। रमा ने मुसकराकर कहा तो फिर बतलाती क्यों नहीं? जालपा—मैं यही माँगती कि मेरा स्वामी सदा मुझसे प्रेम करता रहे। उनका मन कभी मुझसे न गिरे।

रमा ने हँसकर कहा—क्या तुम्हें इसकी भी शंका है?

तुम देवता भी होते तो शंका होती, तुम तो आदमी हो। मुझे तो ऐसी कोई स्त्री न मिली, जिसने अपने पति की निष्ठुरता का दुःखड़ा न रोया हो। साल दो साल तो वह खूब प्रेम करते हैं, फिर न जाने क्यों उन्हें स्त्री से अरुचि सी हो जाती है। मन चंचल होने लगता है। औरत के लिए इससे बड़ी विपत्ति नहीं। उस विपत्ति से बचने के सिवा मैं और क्या वरदान माँगती? यह कहते हुए जालपा ने पति के गले में बाँहें डाल दी और प्रणय-संचित नजरों से देखती हुई बोली-सच बताना, तुम अब भी मुझे वैसे ही चाहते हो, जैसे पहले चाहते थे? देखो, सच कहना, बोलो! रमा ने जालपा के गले से चिमटकर कहा-उससे कहीं अधिक, लाख गुना! जालपा ने हँसकर कहा-झूठ! बिल्कुल झूठ! सोलहों आना झूठ! रमानाथ—यह तुम्हारी जबरदस्ती है। आखिर ऐसा तुम्हें कैसे जान पड़ा? जालपा-आँखों से देखती हूँ और कैसे जान पड़ा। तुमने मेरे पास बैठने की कसम खा ली है। जब देखो तुम