पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(२१२) गर्भ-रण्डा-रहस्य । (२११) डपटे ऊन अनेक, छोड़ छल की परिपाटी। बिदक गये गोस्वामि, नाथ गुरुकुल की काटी।। मुनि का दर्प दबोच, मनोभव-भूत उतारा। अटके निर्जर * आज, बनें किस किसकी दारा॥ करती थी करतूति, नरों की परख परेखा। सव रसिकों का सार, अलखलेखा दल देखा। तक तेंतीस करोड़, रहे उपजा भय भारी वचने की विधि एक, धर्मबल धार विचारी ॥ मन में धीरज बाँध, गाँठ गड़बड़ की खोली। सब को आदर, मान, दान देकर हँस बोली॥ इतनी हल्ल पुकार, अकारण क्यों करते हो। छी! छी !! अमर कहाय, वृथा मुझ पे मरतेहो॥ (२१४) सुनकर बोले जीव ।, हमें निर्जीव न कर त । क्रम से प्रेम पसार, श्रीमती सबको वर तू मान रहा "रसराशि', तुझे सुर-मण्डल सारा । जीवन-नभ में जान, सुकृत का चमका तारा॥

  • देवता ।। बृहस्पति ।

(२१३) 11