पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/१२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१०८
गल्प-समुच्चय


कभी पान लाने का हुक्म होता। कभी मिठाई का। और, हुक्का तो किसी प्रेमी के हृदय की भाँति जलता ही रहता था। वे बेगम साहबा से जा-जाकर कहते––हुजूर, मियाँ की शतरंज तो हमारे जी का जंजाल हो गई! दिन-भर दौड़ते-दौड़ते पैरों में छाले पड़ गये। यह भी कोई खेल है कि सुबह को बैठे तो शाम कर दी! घड़ी-आध घड़ी दिल-बहलाव के लिए खेल लेना बहुत है। खैर, हमें तो कोई शिकायत नहीं, हुजूर के गुलाम हैं, जो हुक्म होगा, बजा ही लावेंगे; मगर यह खेल मनहूस है। इसका खेलनेवाला कभी पनपता नहीं; घर पर कोई न कोई आफ़त ज़रूर आती है। यहाँ तक कि एक के पीछे महल्ले के महल्ले तबाह होते देखे गये है। सारे महल्ले में यही चरचा होती रहती है। हुजूर का नमक खाते है, अपने आका की बुराई सुन-सुनकर रंज हाता है; मगर क्या करें। इस पर बेगम साहबा कहती-मै तो खुद इसको पसन्द नहीं करती; पर वह किसी को सुनते ही नहीं, तो क्या किया जाय।

महल्ले मे भी जो दो-चार पुराने ज़माने के लोग थे, वे आपस में भाँति-भाँति के अमङ्गल की कल्पनाएं करने लगे-अब खैरियत नहीं है। जब हमारे रईसों का यह हाल है, तो मुल्क का खुदा ही हाफ़िज़ है। यह बादशाहत शतरंज के हाथों तबाह होगा। आसार बुरे हैं।

राज्य में हाहाकार मचा हुआ था। प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी। कोई फ़रियाद सुननेवाला न था। देहातों की सारी