पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३४
गल्प-समुच्चय

समय इच्छा न रखते हुए भी नवीन को शारदा का हाथ पकड़ने की आज्ञा हमने दे दी थी। सच यह है कि इसी के पुरुषार्थ से तुम्हारी कन्या के प्राण बचे हैं और साथ में हमारा पापी शरीर गङ्गा-लाभ करते-करते बच गया है। सिद्धान्त-दृष्टि से विवाह विधि सांग हो गई। अब लौकिक व्यवहार की रक्षा के लिए कोई शुभ दिन नियत करके इस संस्कार के बाह्य अंग की पूर्ति भी कर देनी चाहिए। नवीन-बाबू जैसे निष्ठावान् विद्वान् और सदाचारी जामाता के लिए हम तुन्हें हृदय से बधाई देते हैं।"

नवीन-बाबू "स्वामिन" कहकर कुछ कहा ही चाहते थे कि स्वामीजी ने अर्थ पूर्ण दृष्टि से उसकी ओर देखकर कहा—

"नवीन, विधि के विधान के विरुद्ध बोलने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं। बाबू कृष्णदास हमारे बाल्य-सखा हैं, यह बात इच्छा न रहते भी हमें आज कहनी पड़ी है। ये रिटायर्ड डिप्टी कलेक्टर हैं। बड़े सज्जन हैं। इनकी एक-मात्र कन्या शारदा को हमने गोद खिलाया है। इस निष्पृहावस्था में भी हमें उससे सन्तान की तरह स्नेह है। इसका कारण भारवि के शब्दों में यही है—भवन्ति भव्येषु हि पक्षपाताः।"

"जब से हम साधु-वेष में रहते हैं, तब से बराबर कृष्णदास बाबू साल में एक बार हमसे मिलने आते हैं। अपनी कन्या के सम्बन्ध के विषय में ये कई वर्षों से चिन्तित हैं। इन्होंने कल तुमसे बात-चीत करके बहुत आनन्द पाया था। हमसे यह जानकर कि तुम अनूढ़ हो, उन्होंने कल ही तुमसे यह प्रस्ताव करने