पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
६३
अँधेरी दुनिया

उसे सुन्दर कहा जा सकता हो, मोहित थी। मैं उसे छूना, हाथों से पकड़ना, हृदय से लगाना चाहती थी; परन्तु मेरी यह मनोकामना न पूरी हो सकती थी, न होती थी। मैं सुन्दरी थी। मेरा स्वर मीठा था। परन्तु अन्धी की सुन्दरता देखने वाला कोई न था। यह विचार मेरी अपेक्षा मेरे माता-पिता के लिये अधिक दुःखदायी था। जब कभी अकेले होते, मेरे दुर्भाग्य की चर्चा छिड़ जाती। कहते यह उत्पन्न ही क्यों हुई, और जो हुई थी, तो बचपन ही में मर जाती। अब जवान हुई है, वर नहीं मिलता। रूप-रंग देखकर भूख मिटती है; परन्तु आँखों के अभाव ने काम बिगाड़ दिया। अब क्या करें, परमात्मा ही है, जो बिगड़ी बन जाय। और तो कोई उपाय नहीं है।

यह बातें सुनकर मेरे कलेजे में आग-सी लग जाती थी।

(३)

सायङ्काल था। मैं अपने कमरे में बैठी अपने कर्मों को रो रही थी। एकाएक ऐसा मालूम हुआ, जैसे कोई कमरे में आ गया है। यह मेरे पिता न थे। न माँ थी, न नौकर। मैं उन सबके पैरों की चाप को पहचानती थी। यह क़दम मेरे कानों के लिये नये थे। मैंने सिर का कपड़ा सँभालकर पूछा—

"कौन है?"

किसी ने उत्तर दिया—"मैं।"

मैं चौंक पड़ी। मेरे शरीर में एक सनसनी-सी दौड़ गई। यह लाला कर्त्ताराम बैरिस्टर के सुपुत्र लाला सीताराम थे। पहले