पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
६४
गल्प-समुच्चय

हमारे यहाँ प्रायः आते-जाते रहते थे। उनसे और मेरे पिताजी से बहुत प्रीति थी। घर की-सी बात थी। उनके रूप-रंग के सम्बन्ध में मैं क्या कह सकती हूँ, हाँ उनकी आवाज़ बहुत सुकोमल और रसीली थी। वे जब बोलते थे, तब मैं तन्मय हो जाती थी। जी चाहता था, उन्हीं की बात सुनती रहूँ। उनमें दिल को खींच लेने की शक्ति थी। मुझे वे दिन कभी न भूलेंगे, जब वे नेम से हमारे घर आते और केवल मेरी बातें किया करते थे। उनकी इच्छा थी और इस इच्छा को उन्होंने कई बार प्रकट भी कर दिया था कि रजनी का ब्याह जल्दी कर देना चाहिए। मेरे पिता कहते, मगर उसे ब्याहना स्वीकार कौन करेगा? यह सुनकर वे चुप हो जाते। फिर थोड़ी देर पीछे ठण्डी साँस भरते और तब उनके उठकर टहलने की आहट सुनाई देती। इस समय वे कैसे व्याकुल, कितने उदासीन होते थे, यह मैं अन्धी भी समझ जाती थी। उनकी इन सहानुभूतियों ने मेरे हृदय-पट पर कृतज्ञता का भाव अङ्कित कर दिया। मैं उनके आने की बाट देखती रहती थी। यदि न आते, तो उदास हो जाती थी। खाने-पीने की सुध न रहती थी। इसी तरह छः महीने निकल गये। इसके पश्चात् उन्होंने हमारे यहाँ आना-जाना छोड़ दिया और आज पूरे एक साल बाद आये। मैं बैठी थी, खड़ी हो गई। इस समय मेरे शरीर का रोम-रोम प्रफुल्लित हो गया। धीरे से बोली—'इतने समय तक कहाँ रहे?'

'यहीं था।'