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ग़दर के पत्र


समाचार सुनकर हम निराशा में डूब गए कि मेरठ के विद्रोही यहाँ भी आ पहुँचे, और मार-काट तथा ईसाई-घरों में आग लगा रहे हैं। सवारों के बाद पैदल भी आ गए, और देहली की फ़ौज भी इनसे मिलकर क़त्ल और रक्त-पात करने लगी। जब वह दिन याद आता है, तो मेरी शरीर काँप उठता है। लगभग २ बजे दिन के ४ सिपाही बंदूको-सहित मेरे दरवाज़े के सामने आकर खड़े हुए। यद्यपि दरवाज़ा बंद था, पर उन्हें शहर के बदमाशों ने भड़काया था। इसलिये उन्होंने बकना शुरू कर दिया, और कहा कि यह मकान एक ईसाई का है। कल यहाँ एक फ़िरगी आकर ठहरा है। हम मालिक- मकान और नए आगंतुक फिरंगी दोनों को मार डालेंगे। हमारे नौकरों और मुहल्लेवालों ने कहा कि यह घर किसी ईसाई का नहीं है, न इसमे कोई फ़िरंगी है। बहुत खुशामद- दरामद करने और कुछ रुपया देने के बाद उस दिन उनसे पिड छूटा।

जब तक झगड़ा होता रहा, और वह सिपाही चले न गए, तुम्हारे पिता और मैं एक तंग कोठरी में, जिसमें जलाने की लकड़ियाँ थीं, छिपे बैठे रहे। रात को हाजस साहब को तुम्हारे चचा के घर इस विचार से भिजवा दिया कि यदि वे सिपाही फिर आवें, और मकान के भीतर ज़बर्दस्ती घुस आवें, तो साहब को न पावें।

१२ मई को नगर के बदमाशों से विद्रोहियों ने मेरे विषय