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काम लिया और इस शक्ति के सामने पुरुष को झुकना पड़ा। जागेश्वरी बरसों से पुत्र वधू के लिए तड़प रही थी। जो उसके सामने बहुएँ बनकर आयीं, वे आज पोते खिला रही हैं, फिर दुखिया को कैसे धैर्य होता? वह कुछ-कुछ निराश हो चली थी। ईश्वर से मनाती थी कि कहीं से बात आए। दीनदयाल ने सन्देशा भेझा, तो उनको आंख-सी मिल गयीं। अगर कहीं यह शिकार हाथ से निकल गया, तो फिर न जाने कितने दिनों और राह देखनी पड़े। कोई यहां क्यों आने लगा। न धन ही है, न जायदाद, लड़के पर कौन रीझता है, लोग तो धन देखते हैं। इसलिए उसने इस अवसर पर सारी शक्ति लगा दो और उसकी विजय हुई।

दयानाथ ने कहा--भाई, तुम जानो तुम्हारा काम जाने। मुझमें समाई नहीं है। जो आदमी अपने पेट की फ़िक्र नहीं कर सकता, उसका विवाह करना मुझे तो अधर्म-सा मालूम होता है। फिर रुपये की भी तो फ़िक्र है। एक हजार तो टीमटाम के लिए चाहिए, जोड़े और गहने के लिए अलग। ( कानों पर हाथ रखकर ) न बाबा ! यह बोझ मेरे मान का नहीं!

जागेश्वरी पर इन दलीलों का कोई असर न हुआ। बोलो--वह भी तो कुछ देगा।

'मैं उससे मांगने तो जाऊँगा नहीं।'

'तुम्हारे मांगने की जरूरत ही न पड़ेगी। वह खुद ही देंगे। लड़को के ब्याह में पैसे का मुँह कोई नहीं देखता। हाँ, मुकद्दर चाहिए, सो दीनदयाल पोढ़े आदमी है। और फिर यही एक सन्तान है, बचाकर रखेंगे, तो किसके लिए?

दयानाथ को अब कोई बात न सुझी, केवल यही कहा--वह चाहे लाख दें चाहे एक न दें, मैं न कहूंगा कि दो, न कहूँगा कि मत दो। कर्ज मैं लेना नहीं चाहता और लूं, तो दूंगा किसके घर से!

जागेश्वरी ने इस बाधा को मानो हवा में उड़ाकर कहा--मुझे तो विश्वास है कि वह टोके में एक हजार से कम न देंगे। तुम्हारे टीमटाम के लिए इतना बहुत है। गहनों का प्रबन्ध किसो सराफ से कर लेना। टीके में एक हजार देंगे तो क्या द्वार पर एक हजार भी न देंगे? वही

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