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दण्ड देना पड़े। मैरे ब्याह के चौथे ही दिन मेरे गहने चोरी चले गये। हम लोग जागते ही रहे; पर न जाने कब आँख लग गयी, और चोरों ने अपना काम कर लिया। दस हजार की चपत पढ़ गयी। कहीं वही दुर्घटना फिर हो जाय, तो कहीं के न रहे।

रातन- अच्छी बात है, मैं रुपये लिये जाती हूँ, मगर देखना निश्चिन्त न हो जाना। बाबूजी से कह देना सराफ़ का पिण्ड न छोड़ें।

रतन चली गयी। जालपा खूश थी कि सिर से बोझ टला। बहुधा हमारे जीवन पर उन्हीं के हाथों कठोरतम आघात होता है, जो हमारे सच्चे हितैषी होते हैं।

रमा कोई नौ बजे घूमकर लौटा, जालपा रसोई बना रही थी। उसे देखते ही बोली- रतन आयी थी, मैंने सब रुपये दे दिये।

रमा के पैरों के नीचे से मिट्टी खिसक गयी। आँखें फैलकर माथे पर जा पहुँचीं। घबराकर बोला— क्या कहा, रतन को रुपये दे दिये ? तुमसे किसने कहा था कि उसे रुपये दे देना ?

जालापा- उसी के रुपये तो तुमने लाकर रखे थे। तुम खुद उसका इन्तजार करते रहे। तुम्हारे जाते ही वह आयी और कंगन माँगने लगी। मैंने झल्लाकर उसके रुपये फेंक दिये।

रमा ने सावधान होकर कहा- उसने रुपये माँगे तो न थे !

जालपा- माँगे क्यों नहीं? हाँ जब मैंने दे दिये तो अलबत्ता कहने लगी, इसे क्यों लौटाती हो? अपने पास ही पड़ा रहने दो। मैंने कह दिया, ऐसे शक्की मिज़ाजवालों का रुपया मैं नहीं रखती।

रमा- ईश्वर के लिए तुम मुझसे बिना पूछे ऐसे काम मत किया करो।

जालपा-तो अभी क्या हुआ, उसके पास जाकर रुपये माँग लाओ, मगर अभी से रुपये घर में लाकर अपने जी का जंजाल क्यों मोल लोगे ?

रमा इतना निस्तेज हो गया कि जालपा पर बिगड़ने की भी शक्ति उसमें न रही। रुआँसा होकर नीचे चला गया और स्थिति पर विचार करने लगा। जालपा पर बिगड़ना अन्याय था। जब रमा ने साफ कह दिया कि ये रुपये रतन के हैं, और इसका संकेत तक न किया कि मुझसे पूछे बगैर रतन को रुपये मत देना, तो जालपा का कोई अपराध नहीं।

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