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के साथ उसने कितना बड़ा विश्वासघात किया। इतना दुराव रम्न ने पर भी जब इसे मुझसे इतना प्रेम है,तो मैं अगर निष्कपट होकर रहता तो सेरा जीवन कितना आनन्दमय होता !

१८

प्रातःकाल रमा ने रतन के पास अपना आदमी भेजा। खत में लिखा, मुझे बड़ा खेद है कि कल जालपा ने आपके साथ ऐसा व्यवहार किया, जो उसे न करना चाहिए था। मेरा विचार यह कदापि न था कि रुपये आपको लौटा हूँ, मैने सराफ की ताकीद करने के लिए उससे रुपये ले लिये थे। कंगन दो-चार रोज में अवश्य मिल जायेंगे। नाप रुपये भेज दें। उस थैली में दो सौ रुपये मेरे भा थे। वह भी भेजिएगा। अपने सम्मान की रक्षा करते हुए जितनी विनम्रता जरासे हो सकती थी, उसमें कोई कसर नहीं रखी। जब तक आदमी लौटकर न पाया, वह बड़ी व्यग्नता से उसकी राह देखता रहा। कभी सोचता कहीं बहाना कर दे, या घर पर मिले ही नहीं, या दो-चार दिन के वाद देने का वादा करे। सारा दारोमदार रतन के रूपये पर था। अगर रतन ने साफ जवान दे दिया, तो फिर सर्वनाश ! उसकी कल्पना से ही रमा के प्राण सूखे जा रहे थे। आखिर नौ बजे आदमी लौटा। रतन ने दो सौ रुपये तो दिये थे, मगर खत का कोई जवाब न दिया था।

रमा ने निराश आँखों से आकाश की ओर देखा। सोचने लगा, रतन ने खत का जबाव क्यों नहीं दिया ? क्या मामूली शिष्टाचार भी नहीं जानती ? कितनी मनकार औरत है ! रात को ऐसा मालूम होता था कि साधता और सज्जनता की प्रतिमा ही है, पर दिल में यह गुबार भरा हुमा था! शेप रुपयों को चिन्ता में रमा को नहाने-खाने की सुध न रही।

कहार अन्दर गया तो जालपा ने पूछा- तुम्हें कुछ काम-धन्धे की भी खबर है, कि मटरगश्ती ही वारते रहोगे ? इस इज रहे हैं, और अभी तक तरकारी-भाजी का नहीं पता नहीं।

कहार ने त्योरिया बदल कर कहा-तो का चार हाथ-गोड़ कर लेई, कामे से तो गया महिन! बाबु मेम साहब के तीन रुपया लेव का भेजिन रहा।

जालपा- कौन मेम साहब?

कहार- जौन मोटर पर चढ़कर आवत हैं।

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