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जालपा -- तो लाये रुपये? कहार -- लाये काहे नहीं। पिरयी के छोर पर तो रहत है, दौरत-दौरत गोड़ पिराय लाग! जालपा -- अच्छा, चटपट जाकर तरकारी लाओ।

कहार तो उधर गया। रमा रुपये लिये हुए अन्दर पहुँचा तो जालपा ने कहा -- तुमने अपने रूपये रतन के पास से मँगवा लिये न? अब तो मुझसे न लोगे।

रमा ने उदासीन भाव से कहा -- मत दो।

जालपा -- मैंने तो कह दिया था, रुपये दे दूँगी। तुम्हें इतनी जल्दी माँगने की क्यों सूझी? समझी होगी, इन्हें मेरा इतना विश्वास भी नहीं।

रमा ने हताश होकर कहा -- मैंने रुपये नहीं माँगे थे। केवल इतना लिख दिया था कि थैला में दो सौ रूपये ज्यादा है। उसने आप ही आप भेज दिये।

जलपा ने हँसकर कहा -- मेरे रुपये बड़े भाग्यवान है, दिखाऊँ? चुन-चुनकर नये रुपये रखे हैं। सब इसी साल के हैं,चमाचम! देखो तो आँखें ठण्डा हो जायें!

इतने में किसी ने नीचे से आवाज दी -- बाबूजी, सेठ ने रुपये के लिए भेजा है।

दयानाथ स्नान करके अन्दर आ रहे थे, सेठ के प्यादे को देखकर पूछा -- कौन सेठ, कैसे रुपये? मेरे यहाँ किसी के रुपये नहीं आते ?

प्यादा -- छोटे बाबू ने कुछ माल लिया था। साल भर हो गये, अभी तक एक पैसा नहीं दिया। सेठजी ने कहा है, बात बिगड़ने पर रुपये दिये तो क्या दिये। आज कुछ जरूर दिलवा दीजिए।

दयानाथ ने रमा को पुकारा और बोले -- देखो, किसी सेठ का आदमी आया है? उसका कुछ हिसाब बाकी है, पैसे क्यों नहीं कर देते? कितना बाकी है इसका?

रमा कुछ जवाब न देने पाया था, कि प्यादा बोल उठा -- पूरे सात सौ हैं बाबू जी!

दयानाथ को आँखे फैलकर मस्तक तक पहुँच गयीं -- सात सौ! क्यों जी, यह तो सात सौ कहता है!

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