पृष्ठ:ग़बन.pdf/११८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

रमा ने टालने के इरादे से कहा -- मुझे ठीक मालूम नहीं।

प्यादा -- मालूम क्यों नहीं, पुरजा मेरे पास है। तब से कुछ दिया ही नहीं, कम कहाँ से हो गये?

रमा ने प्यादे को पुकार कर कहा -- चलो तुम दूकान पर, मैं खुद आता हूँ।

प्यादा -- हम बिना कुछ लिये न जायेंगे साहब। आप यों ही टाल दिया करते हैं, और बातें हमको सुननी पड़ती है।

रमा सारी दुनिया के सामने ज़लील बन सकता था, किन्तु पिता के सामने ज़लील बनना उसके लिए मौत से कम न था। जिस आदमी ने अपने जीवन में कभी हराम का एक पैसा न छुआ हो, जिसे किसी से उधार लेकर भोजन करने के बदले भूखों रहना मंजूर हो, उसका लड़का इतना बेशर्म और बेग़ैरत हो! रमा, पिता की आत्मा का यह घोर अपमान न कर सकता था। वह उन पर यह बात प्रकट न होने देना चाहता था कि उनका पुत्र उनके नाम को बट्टा लगा रहा है। कर्कश स्वर में प्यादे से बोला -- तुम अभी यहीं खड़े हो? हट जाओ, नहीं धक्के देकर निकाल दिये जाओगे।

प्यादा -- हमारे रुपये दिलाइए, हम चले जायें। हमें क्या आपके द्वार पर मिठाई मिलती है?

रमा ०-- तुम न जाओगे? जाओ लाला से कह देना नालिश कर दें।

दयानाथ ने डाँटकर कहा -- क्यों बेशर्मी की बात करते हो जी। जब गिरह में रुपये न थे, तो चीज़ लाये ही क्यों? और जब लाये, तो जैसे बने वैसे रुपये अदा करो। कह दिया, नालिश कर दो। नालिश कर देगा तो कितनी आबरू रह जायेगी? इसका भी कुछ ख्याल है? सारे शहर में उँगलियाँ उठेगी; मगर तुम्हें इसकी क्या परवा! तुमको यह सूझी क्या, कि एकबारगी इतनी बड़ी गठरी सिर पर लाद ली ? कोई शादी व्याह का अवसर होता, तो एक बात भी थी और वह औरत कैसी है जो पति को बेहूदगी करते देखती है और मना नहीं करती। आखिर तुमने क्या सोचकर कर्ज लिया? तुम्हारी ऐसी कुछ बड़ी आमदनी नहीं है।

रमा को पिता की यह डाँट बहुत बुरी लग रही थी। उसके विचार में पिता को इस विषय में कुछ बोलने का अधिकार ही न था। निःसंकोच होकर

ग़बन
११३