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है, तो मुझे क्या ऐसा शौक चर्राया था कि मुहल्ले भर की स्त्रियों को ताँगे पर बैठा-बैठा कर सैर कराने ले जाती। अधिक-से-अधिक यही तो होता कि कभी-कभी चित्त दुखी हो जाता; पर यह तक़ाज़े तो न सहने पड़ते। कहीं नालिश कर दे तो सात सौ का एक हजार हो जाये। मैं क्या जानती थी कि तुम मुझसे यह छल कर रहे हो; कोई वेश्या तो थी नहीं, कि तुम्हें नोच-खसोटकर अपना घर भरना मेरा काम होता। मैं तो भले-बुरे दोनों ही की साथिन हूँ। भूले में तुम चाहे मेरी बात मत पूछो, लेकिन बुरे में तो मैं तुम्हारे गले पड़ूँगी ही।

रमा के मुख से एक शब्द न निकाला। दस्तर का समय आ गया था। भोजन करने का अवकाश न था। रमा ने कपड़े पहने, और दफ़्तर चला।

रामेश्वरी ने कहा-क्या बिना भोजन किये ही चले जाओगे?

रमा ने इसका कोई जबाव न दिया, और घर से निकला ही चाहता था कि जालपा भपटकर आई और उसे पुकारकर बोली-मेरे पास जो दो सौ रुपये हैं, उन्हें क्यों नहीं सराफ को दे देते?

रमा ने चलते वक्त जान-बूझकर जालपा से रुपये न मांगे थे। वह जानता था, जालपा माँगते ही दे देगी; लेकिन इतनी बातें सुनने के बाद अब रुपये के लिये उसके सामने हाथ फैलाते उसे संकोच ही नहीं, भय होता था। कहीं वह फिर न उपदेश देने बैठ जाये-इसकी अपेक्षा आनेवाली विपत्तियाँ कहीं हलकी थी; मगर जालपा ने पुकारा तो कुछ आशा बँधी। ठिठक गया और बोला-अच्छी बात है, लाओ दे दो।

वह बाहर के कमरे में बैठ गया। जालपा दौड़कर ऊपर से रुपये लायी और गिन-गिनकर उनको थैली में डाल दिये। उसने समझा था, रमा रुपये पाकर फूला न समायेगा; पर उसकी आशा पूरी न हुई। अभी तीन सौ रुपये को फ़िक्र करनी थी। वह कहाँ से आयेंगे? भूखा आदमी इच्छा पूर्ण भोजन चाहता है, दो चार फुलकों से उसको तुष्टि नहीं होती।

सड़क पर आकर रमा ने एक ताँगा किया और उससे जार्ज-टाउन चलने को कहा-शायद रतन से भेंट हो जाये। वह चाहे वो तीन सौ रुपये का बड़ी आसानी से प्रबन्ध कर सकती है। रास्ते में वह सोचता जाता था, आज बिलकुल संकोच न करूँगा। जरा देर में जार्ज-टाउन आ गया।

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