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रतन का बँगला भी आया। वह बरामदे में बैठी थी। रमा ने उसे देखकर हाथ उठाया। उसने भी हाथ उठाया। पर वहाँ उसका सारा संयम टूट गया। वह बंगले में न जा सका, ताँगा सामने से निकल गया। रतन बुलाती तो वह चला जाता। वह बरामदे में न बैठी होती तब भी शायद वह अन्दर जाता; पर उसे सामने बैठे देखकर वह संकोच में डूब गया।

जब ताँगा गवर्नमेंट हाउस के पास पहुंचा, तो रमा ने चौंककर कहा-चलो चुंगी के दफ्त़र। टाँगे वाले ने घोड़ा फेर दिया।

ग्यारह बजते-बजते रमा दफ्तर पहुँचा। उसका चेहरा उतरा हुआ था। छाती धड़क रही थी। बड़े बाबू ने जरूर पूछा होगा। जाते ही बुलायेंगे। दफ़्तर में जरा भी रियायत नहीं करते। टाँगे से उतरते ही उसने पहले अपने कमरे की तरफ निगाह डाली। देखा, कई आदमी खड़े उसकी राह देख रहे हैं। वह उधर न जाकर रमेश बाबू की ओर गया।

रमेश बाबू ने पूछा——तुम अब तक कहाँ थे जो, खजांची साहब तुम्हें खोजते फिरते हैं। चपरासी मिला था? रमा ने अटकते हुए कहा——मैं घर पर न था। जरा वकील साहब की तरफ चला गया था। एक बड़ी मुसीबत में फँस गया हूँ।

रमेश——कैसी मुसीबत, घर पर तो कुशल है? रमा——जी हाँ, घर पर तो कुशल है। कल शाम को यहाँ का काम बहुत था, मैं उसमें ऐसा फँसा कि वक्त की कुछ खबर ही नहीं। जब काम खत्म करके उठा तो खजांची साहब चले गये थे। मेरे पास आमदनी के आठ सौ रुपये थे। सोचने लगा कहाँ रखूँ। मेरे कमरे में तो कोई सन्दूक है नहीं। यही निश्चय किया साथ लेता जाऊँ। पाँच सौ रुपये नकद थे, वह तो मैंने थैली में रखे, तीन सौ रुपये के नोट जेब में रख लिये और घर चला। चौक में दो एक चीजें लेनी थी। उधर से होता गया घर पहुंचा तो नोट गायब थे।

रमेश बाबू ने आँखें फाड़कर कहा——तीन सौ के नोट गायब हो गये?

रमा——जी हाँ, कोट के ऊपर की जेब में थे। किसी ने निकाल लिये।

रमेश——और तुमको मार कर थैली नहीं छीन ली?

रमा——क्या बताऊँ बाबूजी, तब से चित्त की जो दशा हो रही है, वह

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