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रमा ने हार को हाथ में लेकर देखा, और कहा-हाँ, चीज तो अच्छी मालूम होती हैं।

रतन——दाम बहुत कहते है।

जोहरी——बाईजी, ऐसा हार अगर कोई दो हजार में ला दे तो जो जुरमाना कहिए, दूँ। बारह सौ मेरी लागत बैठ गयी है।

रमा ने मुस्कराकर कहा- ऐसा न कहिए सेठजी, जुरमाना देना पड़ जायेग।

जौहरी——बाबू साहब, हार तो सौ रुपये में भी आ जायेगा, और बिल्कुल ऐसा ही, बल्कि चमक-दमक से इससे भी बढ़कर; मगर माल परखना चाहिए। मैंने खुद ही आपसे मोल-तोल की बात नहीं की; मोल-तोल अनाड़ियों से किया जाता है। आपसे क्या मोलतोल। हम लोग निरे रोज़गारी नहीं हैं बाबू साहब, आदमी का मिजाज देखते हैं। श्रीमती जी ने क्या अमीराना मिजाज दिखाया है कि वाह!

रतन ने हार को छुब्ध नेत्रों से देखकर कहा-कुछ तो कम कीजिए सेठजी, आपने तो जैसे कसम खा ली।

जौहरी——कमी का नाम न लीजिए हुजूर ! यह चीज आपकी भेंट है।

रतन——अच्छा अब एक बात बतला दीजिए। कम-से-कम आप क्या लेंगे?

जौहरी ने कुछ क्षुब्ध होकर कहा——बारह सौ रुपये और बारह कौड़ियाँ होंगी; हुजूर। आपके कसम खाकर कहता हूँ, इसी शहर में पन्द्रह सौ की बेचूँगा, और आपसे कह जाऊँगा, किसने लिया।

यह कहते हुए जौहरी ने हार के रखने का केस निकाला। रतन को विश्वास हो गया, यह कुछ कम न करेगा। बालकों की भाँति अधीर होकर बोली——आप तो ऐसा समेटे लेते हैं कि हार को नजर लग जायेगी!

जोहरी——क्या करूँ हुजूर! जब ऐसे दरबार में चीज की कदर नहीं होती, तो दुःख होता ही है।

रतन ने कमरे में जाकर रमा को बुलाया और बोली——आप समझते हैं यह कुछ और उतरेगा?

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