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रमा——मेरी समझ में तो भी एक हजार से ज्यादा की नहीं है।

रतन——संह, होगा ! मेरे पास तो छ: सौ रुपये हैं। आप चार सौ रुपये का प्रबन्ध कर दें तो ले लूँ। वह इसी गाड़ी से काशी जा रहा है। उधार न मांंगेगा। वकील साहब किसी जलसे में गये हैं, नौ-दस बजे के पहले न लौटेंगे। मैं आपको कल रूपये लौटा दूंगी!

रमा ने बड़े संकोच के साथ कहा——विश्वास मानिये, मैं बिलकुल खाली हाथ हूँ। मैं तो आपसे रुपये मांगने आया था। मुझे बड़ी सख्त जरूरत है। यह रुपये मुझे दे दीजिए, मैं आपके लिए कोई अच्छा-सा हार यहीं से ला दूंगा। मुझे विश्वास है, ऐसा हार सात-आठ सौ में मिल जायगा।

रतन——चलिए, में आपकी बातों में नहीं आती। छ: महीने में एक कंगन तो बनवा न सके, अब हार क्या लायेंगे? मैंने यहाँ कई दुकानें देख चुकी है। ऐसी चीज़ शायद ही कहीं निकले और निकले भी, तो उसके दोगुनी दाम देने पड़ेंगे।

रमा——तो इसे कल क्यों न बुलाइए, इसे सौदा बेचने की गरज होगी तो आज जरूर ठहरेगा।

रतन——अच्छा कहिए, देखिए क्या कहता है।

दोनों कमरे के बाहर निकले। रमा ने जौहरी से कहा——तुम कल आठ बजे क्यों नहीं आते?

जौहरी——नहीं हुजूर, कल काशी में दो-चार बड़े रईसों से मिलना है। आज न जाने से बड़ी हानि हो जायेगी।

रतन——मेरे पास इस वक्त छ: सौ रुपये है, आप हार दे जाइए, बाकी के रुपये काशी से लौटकर ले जाइयेगा।

जौहरी——रूपये का तो कोई हर्ज न था, महीने-दो-महीने में ले लेता; लेकिन हम परदेसी लोगों का क्या ठिकाना, आज यहाँ हैं, कल वहाँ हैं, कौन जाने यहाँ फिर कब आना हो? आप इस वक्त इसका एक हजार दे दें, दो सौ फिर दे दीजिएगा।

रमा——तो सौदा न होगा।

जौहरी——इसका अखितयार आपको है, मगर इतना कहे देता हूँ कि ऐसा सौदा फिर न पाइयेगा।

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ग़बन'’'