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था। जैसे कोई स्नेही पिता मेले में लडकी से पूछ-पछुकर खिलौने लेता है, वह भी रतन से पूछ-पूछकर खिलौने लेते थे, उसके कहने-भर की देर थी। उनके पास उसे प्रसन्न करने के लिए धन के सिवा और चीज ही क्या थी? उन्हें अपने जीवन में एक आधार को जरूरत थी, संदेह आधार की, जिसके सहारे इस जीवंत दशा में भी जीवन-संग्राम में खड़े रह सके, जैसे— किसी उपासक को प्रतिमा की जरूरत होती है। बिना प्रतिमा के वह किस पर फूल चढ़ाये, किसे गंगा जल से नहलाये, किसे स्वादिष्ट चीजों का भोग लगाये। इसी भाँति वकील साहब को भी पत्नी की जरूरत थी। रतन उनके लिए संदेह कल्पना मात्र थी जिससे उनकी आत्मिक पिपासा शांत होती थी। कदाचित्र रतन के बिना उनका जीवन उतना ही सूना होता, जितना आँखो के बिना मुख।

रतन ने केस से हार निकालकर वकील साहब को दिखाया और बोली——इसके बारह सौ रुपये मांगते हैं।

वकील साहब को निगाह में रुपये का मूल्य उसकी आनन्ददायिनी शक्ति थी। अगर हार रतन को पसन्द है, तो उन्हें इसकी परवा न थी कि इस के क्या दाम पड़ेंगे। उन्होंने चेक निकालकर जौहरी की तरफ देखा और पूछा-सच-सच बोलो, कितना लिखूँ? अगर फर्क पड़ा तुम जानो।

जौहरी ने हार को उलट-पलटकर देखा और हिचकते हुए बोला- साढ़े ग्यारह सौ कर दीजिए। वकील साहब ने चेक लिखकर उसको दिया, और वह सलाम करके चलता हुआ।

रतन का मुख इस समय वसन्त की प्राकृतिक शोभा की भाँति विकसित था। ऐसा गर्व, ऐसा उल्लास उसके मुख पर कभी भी न दिखायी दिया था। मानों उसे इस समय संसार की सम्पत्ति मिल गयी है।

हार को गले में लटकाके वह अन्दर चली गयी। वकील साहब के आचार-विचार में नयी और पुरानी प्रयामां का विचित्र मेल था। भोजन वह अभी तक किसी ब्राह्मण के हाथ का भी न खाते थे। आज रतन उनके लिए अच्छी-अच्छी चीजें बनाने लगी। अपनी कृतज्ञता को वह कैसे जाहिर करे?

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नवग्