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मगर उसे फिर शंका हुई, कहीं जालपा की आँख न खुल जाये? फिर तो उसके लिए त्रिवेणी के सिवा और कोई स्थान ही न रह जायेगा। जो कुछ भी हो, एक बार तो यह उद्योग करना ही पड़ेगा। उसने धीरे से जालपा का हाथ अपनो छाती पर से हटाया, और नीचे खड़ा हो गया। उसे ऐसा ख्याल हुआ कि जालपा हाथ हटाते ही चौकी और मालूम हुआ कि यह भ्रम-मात्र था ! उसे अब जालपा के सलूके की जेब से तालियों का गुच्छा निकालना था। देर करने का अवसर न था। नींद में भी निम्न चेतना अपना काम करती रहती हैं। बालक कितना ही ग़ाफ़िल सोया हो, माता कि चारपाई से उटते ही जाग पड़ता है। लेकिन जब चाबी निकालने के लिए झूका तो उसे जान पड़ा कि जालपा मुसकरा रही है। उसने झट हाथ खींच लिया और लैम्प के क्षीण प्रकाश में जालपा के मुख की ओर देखा, जो कोई सुखद स्वप्न देख रही थी। हा, इस सरला के साथ मैं ऐसा विश्वास-घात करूं ? जिसके लिए मैं अपने प्राणों को भेंट कर सकता हूँ उसी के साथ यह कपट? जालपा का निष्कपट स्नेह पूरी हृदय मानों उसके मुख- मंडल पर अंकित हो रहा था। बाह ! जिस समय इसे ज्ञात होगा कि इसके गहने फिर चोरी हो गये, इसकी क्या दशा होगी? पछाड़ खायेगो, सिर के बाल नोचेगी। वह किन आँखों से उसका वह क्लेश देखेगा? उसने सोचा——मैंने इसे आराम ही कौन-सा पहुँचाया है? किसी दूसरे से विवाह होता तो अब तक वह रत्नों से लद जाती। दुर्भाग्यवश इस घर में आयी जहाँ कोई सुख नहीं। उलटे और रोना पड़ा।

रमा फिर चारपाई पर लेट रहा। उसी वक्त जालपा की आँखें खुल गयी। उसके मुख की ओर देखकर बोली——तुम कहाँ गये थे? मैं बड़ा अच्छा सपना देख रही थी। बड़ा बाग है और हम तुम दोनों उस में टहल रहे है।

इतने में न जाने तुम कहाँ चले जाते हो और एक साधु आकर मेरे सामने खड़ा हो जाता है। बिल्कुल देवताओं का-सा उसका स्वरूप है। वह मुझसे कहता है——बेटी, तुझे वर देने आया हूँ ! माँग क्या माँगती है? तुम्हें इधर-उधर खोज रही हूँ कि तुमसे पूछूँ, क्या माँँगू !और तुम कहीं दिखायी नहीं देते। मैं सारा बाग छान आयी, पेड़ों पर झाँककर देखा, तुम न जाने कहाँ चलें गये हो। बस, इतने में नींद खुल गयी, वरदान न मांगने पाई !

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