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न किसी से मित्रता थी, न किसी से मेलजोल। रमानाथ मिलनसार युवक था। उसके मित्र ही इस समय हर एक काम में अग्रसर हो रहे थे। जो काम करते, दिल खोलकर। आतिशबाजियां बनवाई, तो अव्वल दर्जे की। नाच ठीक किया तो अव्वल दर्जे का, गाजे-बाजे भो अव्वल दर्जे के। दोयम या सोयम का यहां जिक ही न था। दयानाथ उसकी उच्छृंखलता देखकर चिंतित हो जाते थे, पर कुछ कह न सकते थे। क्या कहते?

नाटक उस बक्त पास होता है; जब रसिक समाज उसे पसन्द कर लेता है। बारात का नाटक उस वक्त पास होता है, जब राह चलते आदमी उसे पसन्द कर लेते हैं। नाटक की परीक्षा चार-पांच घंटे तक होती रहती है, बारात की परीक्षा के लिए केवल इतने ही मिनटों का समय होता है। सारी सजावट, सारी दौड़ धूप और तैयारी का निपटारा पांच मिनटों में हो जाता है। अगर सबके मुंह से वाह-वाह' निकल गया, तो तमाशा पास, नहीं फेल! रूपया, मेहनत, फिक्र, सब अकारथ। दयानाथ का तमाशा पास, हो गया। शहर में वह तीसरे दर्जे में आता, गांव में अव्वल दर्जे में आया। कोई बाजों की धो-धों पों-पों सुनकर मस्त हो रहा था, कोई मोटर को अांखें फाड़-फाड़ कर देख रहा था, कुछ लोग फुलवारियों के तहते देखकर लोट-लोट जाते थे। आतिशबाजी सबके मनोरंजन का केन्द्र थी। हवाइयाँ जब सन्न से ऊपर जाती, और आकाश में लाल, हरे, नीले, पोले कुमकुमे से बिखर जाने और जब चर्खियां छुटती और उनमें नाचते हुए मोर निकल आते, तो लोग मंत्र-मुन्ध से हो जाते थे। बाह, क्या कारीगरी है।

जालपा के लिए इन चीजों में लेशमात्र भी आकर्षण न था। हां, वह वर को एक आँख देखना चाहती थी, वह भी सबसे छिपाकर; पर उस भीड़-भाड़ में ऐसा अवसर कहाँ। द्वारचार के समय उसकी सखियां उसे छत पर खींच ले गयी और उसने रमानाथ को देखा। उसका सारा विराग, सारी उदासीनता मानों छूनन्तर हो गयी थी। मुंह पर हर्ष की लालिमा छा गयी। अनुराग स्फूर्ति का भंडार है।

द्वारचार के बाद बारात जनबासे चली गयी। भोजन की तैयारियाँ होने लगा। किसी ने पूरिया खायौं, किसी ने उपनों पर खिचड़ी एकायो।

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