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शावकों के साथ किलोल करते देखकर तनी हुई बन्दुक कंधे पर रख लेता है, और वात्सल्य और प्रेम की क्रीड़ा देखने में तल्लीन हो जाता।


उसे अपनी ओर टकटकी लगाये देखकर जालपा ने मुसकराकर कहा——देखो, मुझे नजर न लगा देना ! मैं तुम्हारो आँखों से बहुत डरती हूँ।

रमा एक ही उड़ान में वास्तविक संसार से कल्पना और कवित्व के संसार में जा पहुँचा। ऐसे अवसर पर जब जालपा का रोम-रोम आनन्द से नाच रहा है, क्या वह अपना पत्र देकर उसकी सुखद कल्पनाओं को दलित कर देगा? वह कौन हृदयहीन व्याध है, जो चहकती हुई चिड़िया की गर्दन पर छुरी चला देगा? वह कौन अरसिक आदमी है, जो किसी प्रभात कुसुम को तोड़कर पैरों से कुचल डालेगा? रमा इतना हृदयहीन, इतना अरसिक नहीं है। वह जालपा पर इतना बड़ा आघात नहीं कर सकता। उसके सिर कैसी ही विपत्ति क्यों न पड़ जाय, उसकी कितनी ही बदनामी हो उसका जीवन ही क्यों न कुचल दिया जाय पर वह इतना निष्ठर नहीं हो सकता। उसने अनुरक्त होकर कहा——नजर तो न लगाऊँगा, हाँ हृदय से लगा लूंगा। इसी एक वाक्य से उसकी सारी चिन्ताये सारी बाधाएँ विसर्जित हो गयीं। स्नेह- संकोच की वेदी पर उसने अपने को भेंट कर दिया। इस अपमान के सामने जीवन के और सारे क्लेश तुच्छ थे। इस समय उसकी दशा उस बालक की-सी थी, जो फोड़े पर नश्तर की क्षनिक पीड़ा न सहकर उसके फूटने, नासूर पड़ने, वर्षो खाट पर पड़े रहने और कदानित् प्राणान्त हो जाने के भय को भी भूल जाता है।

जालपा नीचे जाने लगी तो रमा ने कातर होकर उसे गले से लगा लिया और इस तरह मेंच-भैंचकर उसे आलिंगन करने लगा, मानो यह सौभाग्य उसे फिर न मिलेगा। कौन जानता है, यही उसका अन्तिम आलिंंगन हो। उसके कर-पाश मानो रेशम के सहस्रों तारों से संगठित होकर जालपा से चिमट गये थे। मानो कोई मरणासन्न कृपण अपने कोष को कुंजी मुट्ठी में बन्द किये हो, और प्रतिक्षण मुट्टो कठोर पड़ती जाती हो। क्या मुट्ठी को बलपूर्वक खोल देने से ही उसके प्राण न निकल जायेंगे?

सहसा जालपा बोली——मुझे कुछ रुपये दे तो दो, शायद वहाँ कुछ

जरूरत पड़े।

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ग़बन